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भ्रम है मुझे कि मैं सीखने चली, कहो क्या तो मैं सीखने चली? मिला है ये रेकेट, ये टेनिस बॉल, ये टेनिस कोर्ट मिले हैं ये हाथ और शरीर, सभी कर्मों से
क्या मैं कर्मों की कठपुतली हूं? क्या मैं यही सीखने जन्मी हूं? नहीं, मैं तो पुरुष हूं, पुरुष हूं, मैं तो आत्मा हूं आत्मा हूं मैं तो आत्मचिंतन ही करूंगी
टेनिस क्या, और बॉल क्या. मेरे भवों को भी निहारूंगी जौर से मारूं, दाएं से मारूं, बाएं से मारूं, पूरी ही हिम्मत से मारूं बॉल को ही निहारते निहारते शुद्ध चैतन्य आत्मा को निहारूं
एक दिन ये बॉल भी चला जायेगा, कर्मों का खेल भी ख़तम हो जाएगा मैं तो स्वतंत्र, स्वआनंद में झूलूंगी दायां क्या और बायां क्या, सीधे ही सिद्ध बन जाउंगी
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