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बॉल ओन द वाल
आज की एक बात बताऊं मैं, मेरा ही एक ख्याल बताऊं मैं रहती हूं मैं टेनिस कोर्ट्स के सामने, सभी कहते हैं कि खेल तू टेनिस मैंने भी एक टीचर ढूंढा और खेलने लगी मैं टेनिस
आज के दिन बादल घिरे थे, धूप बिलकुल भी नहीं थी गयी मैं टेनिस की प्रेक्टिस के लिए, अकेली थी मैं, और खेलने लगी मैं दिवाल के साथ
बॉल को रेकेट के साथ पूरा स्विंग कर फेंकू मैं दिवाल पर वापिस आये, और फिर मैं फेंकू दाएं से फेंकू, बाएं से फेंकू, फेंकू मैं पूरे जोर शोर से
फिर विचार चला कि करती आई मैं,यही तो भव भावान्तर से जन्मो जनम से बॉल हैं फेंकें, अपने कर्मों के निमित्त से कर्मों को ही सब कुछ माना उसी में रचपच कर
फेंकें मैंने बॉल दाएं से और बाएं से,
खुश हुइ यदि बॉल जैसा चाहा था वैसा ही पड़ा दुखी हुइ या हुइ नाराज यदि बॉल वैसा ही नहीं पड़ा
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