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प्रीत
प्रीत है मेरी मैंने छुपाई, ऐसी दबाई कि पहचानी भी न जाइ पहले छुपाई माँ के आंचल में, मैंने फिर छुपाई घरबार ही में माँ बाप लगे प्यारे और लगे प्यारे भाई बहन भी जैसे जैसे समय बीता दोस्त बंधु भी लगे मुझे प्यारे
ऐसे भी तो पल हैं आये कि माँ बाप से भी ज्यादा कहीं दोस्त बंधु लग गये मुझे प्यारे, देखो तो अब कैसे मैंने मेरी ही प्रीत छुपाई और दबा ली इन बदलते ही रंगों में, रिश्तों में, संबंधों में, राग के इन भावों में
और भी समय जो निकला प्रीत के संबंध भी बन ही गये मजबूत, राग भी मेरा हुआ गहरा, प्रीत बनी पति-पत्नी की और बाल-बच्चों की और अब तो ऐसा ही लगे, यह प्रीत है मेरी सदा के लिये
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