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यह पांचों रत्न मुझ भटके, भूले शिष्य को स्वयं का निज घर, निज ज्ञान स्वभाव, निज वैभव का ही भान कराते हैं, आगे कहते हैं शिष्य भटकना छोड़, तू स्वयं ही स्वयं का साधन है, साध्य है, स्वयं ही है ध्येय
स्वयं ही है ज्ञान, ज्ञाता एवं सारे के सारे ज्ञेय भी तू स्वयं ही स्वयं को पायेगा और निज निधियों में ही सदा के लिये सुख-शांतिमय ही जानेगा. धन्य है स्वयं का उपादान, स्वयं से, सारे निमित्तों से स्वतंत्र
अब इस शरीर का गुलाम तो क्या, हूं तो पूर्ण मुक्त
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