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जब गुरुदेव ने कहा स्वयं में ही, स्वयं से ही, स्वयं में जा. तो शिष्य कहे, ये सारे दुनिया के निमित्तों का क्या ? यह घर, शरीर, संबंध, धन-दौलत किसी भी काम के ही नहीं ये सब तो दुःखकारी, क्षणिक, मैं तो स्वयं में ही हूं शाश्वत
इसी तरह इस संसार से होते सारे शुभाशुभ भाव मेरे नहीं वे होवें मुझ में, पर मेरे नहीं, मैं तो स्वयं ही, स्वयं से ही परमपारिणामिक, अडोल. नित्य, ज्ञानानंद निज भाव ही हूं शुद्ध चैतन्य, शांतिमय, निमित्तोंसे परे, निज उपादान ही हैं
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