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पूज्य श्री गुरुदेव का दिया चौथा रत्न
चौथा महा रत्न है गुरुदेव का, कि निमित्त होते हैं अवश्य, पर कर सकते कुछ भी नहीं. निमित्तों की हाजरी बगैर भी कुछ होता ही नहीं, एवं निमित्त कभी भी, कहां भी,कुछ भी कर सकते ही नहीं
संसार बना छ द्रव्यों का, सारे के सारे अनंत जीव और अनंतानंत पुद्गल खुद खुद के ही उपादान से इस लोक में परिणमते ही रहते हैं. स्वयं ही खुद का सिद्धपना भी स्वयं के ही उपादान से पाते हैं. मैं जीव ज्ञायक ही जान सकता हूं
अभी मेरा प्रगट ज्ञान है अल्पज्ञ, मेरे अनंत पुण्यों से मुझे गुरुदेव जैसे सर्वोत्कृष्ठ निमित्त हैं मिले, मुझ सर्वज्ञ को मेरी ही मूर्छा से जगा रहे हैं. निमित्त कह रहे हैं, शिष्य छोड़ मुझे, स्वयं के उपादान में तू जा, वहीं पर है तू स्वयं पूर्ण
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