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________________ इस सारे ज्ञान में तो अब मैं उदास हो गया हूं मैं तो अंतर्मुख मेरे ज्ञायक में ही चिदानंदी हूं ये बाहर का प्रकाश सूरज के तेज में लगता है अंधियारा मैं तो मेरे अंतर की झड़हड़ ज्योत से ही स्वयं ही प्रकाश हूं मैं तो ज्ञायक हूं प्रभु ज्ञायक हूं ज्ञायक ही हूं यह बाहर का वीर्य प्रभु सिर्फ दिखावा ही है. यह शरीर भी तो कुछ समय के लिये ही मेरा पहरावा ही है यह मेरी सच्ची पहचान ही नहीं, मैं तो अजर, अमर, अविनाशी, अरुपी, वीर्यवान ही हूं मैं तो ज्ञायक हूं प्रभु ज्ञायक हूं ज्ञायक ही हूं इस संसार में तो दिन रात सफाई कर कर के थका हूं यहाँ तो विकारों का, कषायों का जैसे अंत ही नहीं मैं तो शुद्ध, बुद्ध, स्वच्छ, स्वयं में ही पूरी तरह सम्पूर्ण हूं मैं तो ज्ञायक हूं प्रभु ज्ञायक हूं ज्ञायक ही हूं हर समय, हर क्षण के भिन्न भिन्न अनुभवों से भी अब तो मैं थका हूं ये बदलते अनुभव मुझे हंसाते-रुलाते, अच्छे-बूरे लगते, लाभ-हानि वाले लगते मैं तो सदैव ही आनंदी, ध्रुव, अचल, अडोल, मुझ में ही हूं मैं तो ज्ञायक हूं प्रभु ज्ञायक हूंज्ञायक ही हूं 120
SR No.009269
Book TitleMukt Gulam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Maru
PublisherHansraj C Maru
Publication Year2014
Total Pages176
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati, Book_Devnagari, & Book_English
File Size23 MB
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