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________________ जवानो को लगता है, मैं तो योगियों की तरह, मेरे शरीर को ऐसा कर लूंगा स्वस्थ, कि भूख, प्यास, ठंडी, गर्मी का जैसे अनुभव ही नहीं जैन मुनि करते नहीं परिश्रम योगियों की तरह, वे तो स्वयं के निज पद को जान, पहचान, उसी में सहजता से करते हैं रमण. योगियों की तपस्या मानवियों को असाधारण लगे पर है क्षणिक. जैन मुनियों का सहज तपही है शाश्वत. क्या यह नहीं है अचरज ? जैन मुनियों ने अजीव शरीर और जीव चैतन्य का संयोग जाना. दोनों तत्वों को भिन्न भिन्न भीजाना. संयोग से संसार और भिन्नशुद्ध चैतन्य मेंही स्वयं की शुद्धदशा कोपाया. क्या यह नहीं हैअचरज? जीव पुद्गल के एक अणु की शक्ति को मानने तैयार है. जीव कुदरत को भी स्वीकार करता है. पर स्वयं के निज पद, स्वयं में ही पंच परमेष्ठी पद को मानने नहीं है तैयार. क्या यह नहीं है अचरज ? जीव हैं तो अनंत, परन्तु शुद्ध जीव मानव का ही है अमूल्य रत्न. पूरी दुनिया में इस रत्न की तुलना ही नहीं. फिर मानव ही इसे पाना तो क्या, समझना भी नामुमकिन मानता है. क्या यह नहीं है अचरज ? मानवही बनता हैपापी, पुण्यशाली, रागी, द्वेषी, डॉक्टर, वकील और इंजिनियर पर नहीं बनतावीतरागी. इसीलिए मानव रहता दुखी इस संसार में और जैन मुनि शाश्वत सुख में. क्या यह नहीं है अचरज 105
SR No.009269
Book TitleMukt Gulam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Maru
PublisherHansraj C Maru
Publication Year2014
Total Pages176
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati, Book_Devnagari, & Book_English
File Size23 MB
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