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आत्मतत्त्वसमीक्षणम्
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ततः स ज्ञानयोगेन स्वात्मालम्बनयोगतः।
शुद्धचिन्मात्रविश्रान्तिं शीघ्रमेवाधिगच्छति।।११।। तदनन्तर वह (साधक) ज्ञानयोग से अपनी आत्मा का आलम्बन लेकर शीघ्र ही शुद्ध ज्ञान रूप में विश्रान्ति प्राप्त करता है।।११।।
अद्वैतं भावयन्नेवं सर्वत्र समभावतः।
निराकाङ्की भवे मोक्षे जायते मुनिपुङ्गवः।।१२।। इस प्रकार अद्वैत की भावना करते हुए सभी जगह समभाव पैदा होने के कारण वह श्रेष्ठ मुनि मोक्ष के विषय में या संसार के विषय में आकांक्षारहित हो जाता है।।१२।।
द्वैतमूलात्समुत्पन्नं दुःखं तस्य विनश्यति।
चिद्रसामृतमग्नः स परमं सुखमश्रुते।।१३।। द्वैत से उत्पन्न हआ (यह मेरा है इत्यात्मक ज्ञान से) दुःख समाप्त हो जाता हैं तथा ज्ञानामृत रस में मग्न होकर वह परम सुख भोगता है।।१३।।
आत्मानं शाश्वतं ज्ञात्वा जगद्वृत्तं विनश्वरम्।
विवेकी जायते शीघ्रमर्थकामपराङ्मखः।।१४।। आत्मा की अविनाशिता और जगद् को नाशवान् समझकर विवेकी साधक शीघ्र ही अर्थ और काम के प्रति उदासीन हो जाता है।।१४।।
प्राप्ते तु शुद्धचैतन्ये ममत्वं विनिवर्तते।
विरक्तिर्जायते पूर्णा नित्यानित्यविवेकिनः।।१५।। नित्य और अनित्य के विचार करनेवाले साधक को शुद्ध चैतन्य प्राप्त होने पर ममता का शमन और विरक्ति की पूर्णता आती है।।१५।।
ज्ञात्वा जडं शरीरं यः पुद्गलेषु न मुह्यति।
क्षुभ्यति ज्ञानतृप्तः स किं मृत्यौ समुपस्थिते।।१६।। जो शरीर को जड समझकर शरीर पर मोह नहीं रखता तथा जो ज्ञान से सन्तुष्ट है, वह मृत्यु के समय में क्यों घबराये ?।।१६।।