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________________ ८० ग्रामेऽथवा वने तस्य कोऽपि भेदो न विद्यते । समशीलः : स सर्वत्र सर्वदैव न संशयः ।। १७ ।। (साधक) गाँव हो या जंगल उसके लिए दोनों में अन्तर नहीं है। वह तो हर समय और हर जगह को समान भाव से ही देखता है क्योंकि उसने समता को पा लिया है।।१७।। आलम्ब्य समतां धीरो निन्दायां संस्तवे समः । कुरुते नैव मोक्षार्थी रोषं तोषं कदाचन ।। १८ । धैर्यवान् साधक समता को धारण कर के निन्दा तथा प्रशंसा दोनों समय समान रहता है, वह न तो दुःख में किसी पर क्रोध करता है और न ही सुख में अति प्रसन्न होता है।। १८ ।। उपादेयं न वा हेयं यस्य विश्वे चराचरे। इष्टानिष्टविकल्पो न कर्मणा किं स लिप्यते।।१९।। योगकल्पलता जिसके लिए इस स्थावर-जंगम संसार में न कोई त्याज्य है न ही ग्राह्य है, न कोई इष्ट है न तो कोई अनिष्ट, वह भला कर्म से कैसे बँध सकता है ? ।। १९ ।। संस्थितः परमे स्थाने योगी हर्षं न गच्छति । तथैव सर्वनाशेऽपि तस्य शोको न जायते ।।२०।। जैसे योगी पुरुष सर्वोच्च स्थान को प्राप्त करके भी प्रसन्न नहीं होता वैसे ही सब कुछ चले जाने पर भी कोई शोक नहीं करता ।। २० ।। सर्वसङ्गपरित्यागादसङ्गो जायते ध्रुवम् । समत्वयोगसंसिद्धौ समः सर्वत्र साधकः ।।२१।। संसार का परित्याग करके साधक एकाकी भाव को स्वीकार करता है। वह समत्व योग की सिद्धि होने पर हर जगह समता भाववाला होता है ।। २१ ।। यः परात्मा स एवाहं कश्चिज्जानाति तत्त्वतः । 'सोऽहं' भावे तु सञ्जाते न भयं कुत्रचिदहो ॥ २२॥
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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