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योगकल्पलता
अप्रीति, जैसे सभी द्वन्द्वों से मुक्त होता है (अत एव) वह न तो (किसी क्रिया का) कर्ता होता है न ही (किसी क्रिया के फल का) भोक्ता होता है।।५।।
स्वात्मबोधादिदं विश्वं स्वप्नवत्स च पश्यति।
परानन्दनिमग्नस्तु जायते पूर्ण एव हि।।६।। __ आत्मबोध होने के कारण वह संसार को स्वप्न के समान मिथ्या समझता है तथा परमानन्द की अनुभूति करके पूर्णता प्राप्त करता है।।६।।
शुद्धबुद्धस्वरूपं स निजं ज्ञात्वा विवेकतः।
देहाभिमानमुत्सृज्य त्यजति क्षुद्रचित्तताम्।।७।। विवेक (देहात्म भेद ज्ञान) के कारण वह अपना शुद्ध और बुद्ध (ज्ञानमय) स्वरूप जानकर देह के अभिमान (मैं देह हूँ ऐसा मिथ्याज्ञान) को छोडकर क्षुद्र चित्तता का त्याग करता है।।७।।
एवं मुक्ताभिमानी स सर्वत्रैवाक्रियः सदा।
सर्वभ्रमैर्विनिर्मुक्तो देहे मुक्तो हि तिष्ठति।।८।। इस प्रकार वह (साधक) अभिमान से मुक्त होकर, हर सांसारिक क्रिया से (उपेक्षा भाव) रहित सभी मिथ्याज्ञान से मुक्त होकर शरीर रहते हुए भी मुक्त होता
है।।८।।
निर्मलो निस्तरङ्गः स चिद्विलासपरायणः।
साकारं सकलं त्यक्त्वा निराकारेऽवतिष्ठते।।९।। ऐसा ज्ञानी आध्यात्मिक पुरूष निर्मल और पूर्ण शान्त होता है, वह सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग करके निराकार ज्ञान में स्थित होता है।।९।।
मोहविडम्बनामुक्तो ममत्वरहितो हि सः।
प्रपश्यति स्वरूपं तु स्वात्मनि परमात्मनः।।१०।। इस प्रकार सांसारिक माया-मोह कृत विडंबना से मुक्त ममता रहित हुआ वह (साधक) आत्मा में ही परमात्मा के स्वरूप का दर्शन करता है।।१०।।