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________________ यह बात हमारे छोटे दिमाग में नहीं उतरती। अपने अस्तित्व में से संसार को घटाया जाए तो अपना स्वरूप कैसा होगा? ऐसे मजेदार विचारों में से आत्मतत्त्वसमीक्षण का जन्म हुआ है। समीक्षण अर्थात् समझदारी से देखना। यहाँ आत्मा की तरफ समझदारी से देखने का प्रयास किया है। हम मन के इस पार - बुद्धि के प्रदेश में जीते हैं। आत्मा मन के उस पार - श्रद्धा के प्रदेश में है। बुद्धि का साधन विचार यहाँ कम होता है। श्रद्धा के प्रदेश का साधन अनुभव है। अध्यात्मपथ के एकाकी यात्री श्री आनंदघनजी म. कहते हैंअनुभव तुं ही हेतु हमारो अनुभव प्राप्त होने के बाद ही ध्यान उत्पन्न होता है। ध्यान के द्वारा ही शरीर और आत्मा भिन्न है यह प्रतीति होती है। जब कोई व्यक्ति अपने के शरीर से अपनी आत्मा को अलग देखता है तब वास्तविक रीति से योग (ध्यान)का विधि उत्पन्न होता है।(४५) मन वश में न हो तो देहात्मभेदज्ञान नहीं होता। मन में राग-द्वेष उछलते हो तो मन आत्मा का विचार कैसे करेगा? राग-द्वेष इत्यादि मन के दोष कहे जाते हैं।(४०) __ मन को साधना के अनुकूल बनाने के लिये उसे वैराग्य से वासित करना होगा। शरीर का राग (आसक्ति) और विषयों की ममता मन को थोडे समय के लिये भी स्थिर नहीं रहने देती। इस जहर को उतारने का मंत्र है-मैं (शरीर) नहीं और कोई मेरा(घर-परिवार) नहीं, यह मोक्षमंत्र कहा गया है।(२६) इस मंत्र के द्वारा मोह पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। मोह पर विजय यानी जानकारी (नॉलेज)रूप ज्ञान प्रतीति (रियलाइझेशन)में बदलता है। इस अवस्था में संसार का सच्चा स्वरूप दिखता है और मोक्षमार्ग की प्रतीति होती है। मार्ग यानी चित्त का अवक्र परिणाम। राग-द्वेष मंद होने पर ऐसा परिणाम उत्पन्न होता है। तब सभी चिंताओं का त्याग कर मन अंतर्मुख बन जाता है और विषयों पर प्रेम न रहने पर तत्त्व का प्रकाश प्राप्त होता है।(३५) इस ज्ञान की सहाय से जो वैराग्य उत्पन्न होता है वह ज्ञानगर्भित होता है, ज्ञानगर्भित वैराग्य ही त्याग की शक्ति और मोक्ष की इच्छा का जन्मदाता है। आत्मज्ञान
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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