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प्रवेश
इस संकलन में सु.गिरीशभाई की तीन नूतन रचना प्रस्तुत है। गिरीशभाई बचपन से ही वह बहुत मेधावी थे। उनके पिताजी परमानंदभाई कापडिया संस्कृत के पंडित थे। उन्होंने गिरीश को बचपन से ही संस्कृत का अभ्यास करवाया। इससे गिरीशभाई आठ साल की उम्र से संस्कृत में श्लोक बनाने लगे। बाण, हर्ष, कालिदास जैसे कवियों के प्रभाव में शृंगारिक कृतियाँ बनाते। चौदहवे साल में पू. पंन्यासजी महाराज श्री भद्रंकर विजयजी गणिवर के परिचय द्वारा गिरीशभाई के जीवन की दिशा बदल गई। अध्यात्म का रस जाग उठा। व्यावहारिक शिक्षा में उनके पास तीन उपाधियाँ थी, वे कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हए। कांदीवली से खार जाते समय सौ तथा वापस आते समय सौ श्लोकों की रचना करते थे। ऐसे कच्चे सोने जैसे सुंदर क्षयोपशम को पंन्यासजी महाराज का जादूभरा स्पर्श हुआ। समय मिलते ही गिरीशभाई पंन्यासजी महाराज के पास पहँच जाते, पंन्यासजी महाराज ने सोनी की तरह उनके क्षयोपशम का आभूषण में परिवर्तन किया। पंन्यासजी महाराज ने एक विरल आत्मा को अध्यात्म की दिशा देकर उनकी शक्ति सही अर्थ में सन्मार्ग पर लगाई।
सर्जक धूनी होते हैं। उनको दुनिया का तथा दुनियादारी का ज्ञान होता है लेकिन उसके बारे में जागृति कम होती है। उन्हें एकांत और चिंतन बहुत अच्छा लगता है। बाते करना पसंद नहीं होता। इससे उनके संबंध कम होते हैं। जो होते हैं वे भी गहरे नहीं होते। साधारण मनुष्य उनको समझ नहीं सकते। समझ सके तो भी उसे सुरक्षित नहीं कर सकते। आध्यात्मिक बोध तथा बौद्धिक क्षमता के साथ व्यावहारिक संबंध सुरक्षित रखने की कला का समन्वय विरल व्यक्ति ही कर सकता है। उसके लिये विशेष प्रकारका क्षयोपशम चाहिये। अध्यात्मशून्य व्यक्ति के बाह्य संबंध उसके स्व का लाभ नहीं करते, तो अध्यात्मसंपन्न व्यक्ति संबंध के क्षेत्र में जाता है तो दूसरे को जो लाभ होना चाहिए वह नहीं होता। गिरीशभाई आत्मसन्मुख