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आशाप्रेमस्तुतिः
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रासक्रीडाप्रसङ्गे वा सर्वावस्थासु सर्वदा।
आशे! महाव्रतं मन्ये प्रियानुकरणं हि ते।।१०६।। आशे! रासक्रीडा के समय या सभी अवस्थाओं में तुम्हें प्रिया का अनुकरण करना महाव्रत मानता हूँ। ।।१०६।।
आशे! त्वां हि समाधाय यश्चित्ते ध्यानतत्परः।
लोकाचारैस्तु किं तस्य बहिष्क्रियादिभिस्तदा।।१०७।। जो तुमको मन में रखकर ध्यान में लीन होता है, अर्थात् तुम्हारा ही ध्यान करता है, आशे! उसे बाहरी लोकाचारक्रिया धर्म अनुष्ठानादि का क्या प्रयोजन? ।।१०७।।
आशे! त्वमेव संसारे रागादिविषनाशिनी।
समतामृतरूपा वै परमामृतदायिनी।।१०८।। आशे! इस संसार में रागादिरूप विष को नाश करनेवाली समतारूप अमृत स्वरूपवाली, परम अमृत (मोक्ष) देनेवाली तुम ही हो। ।।१०८।।
षट्चक्रमध्यमार्गेण क्षणादेवोर्ध्वगामिनी।
परा शक्तिस्त्वमेवाशे! योगिप्रानप्रिया मता।।१०९।। आशे! षट्चक्र के मध्यमार्ग से क्षणभर में ऊपर जानेवाली, तथा योगियों को प्राण के समान प्रिया पराशक्ति तुम ही हो। ।।१०९।।
आशे! स्वानुभवस्सद्यसामरस्यात्प्रकाशते।
जायते शिवभावश्च सर्वत्र समदर्शिता।।११०।। आशे! (तुम्हारे ही ध्यान से) तुरंत ही समरसता आती है तथा समरसता से साधक का अपना अनुभव प्रकाशित होता है; एवं मैं शिव हूँ इस भाव से साधकों में समदर्शिता होती है। ।।११०।।
गुरोर्भद्रङ्कराख्यस्य पन्न्यासपदधारिणः।
प्रसादात्प्रेमवृद्ध्यर्थमाशाप्रेमस्तुतिः कृता।।१११।। गुरुवर पंन्यास श्री भद्रशंकरविजयजी की कृपा से प्रेमवृद्धिहेतु आशाप्रेमस्तुति की रचना की गयी। ।।१११।।
।।इति आशाप्रेमस्तुतिः।।