________________
१०६
योगकल्पलता
प्रत्यक्षं देवरूपं हि मत्वा त्वं गिरीशं मुदा ।
आशे ! शुश्रूषसे सम्यक् सर्वदा भक्तिभावतः । । १००।।
आशे! तुम भगवान् शंकर को प्रत्यक्ष देवरूप मानकर प्रसन्नता से भक्तिभावपूर्वक अहर्निश उनकी सेवा करती हो। ।। १०० ।।
त्वं हि प्रेमप्रकर्षान्मे मनोवृत्तानुसारिणी ।
आशे ! तस्मात्त्वया सार्धं सामरस्यसुखं मम । । १०१ ।।
आशे ! प्रेम की उत्कृष्टता से तुम मेरे मन का अनुसरण करनेवाली हो, इसलिये तुम्हारे साथ मुझे समरसता सुख का अनुभव होता है । ।। १०१ ।।
आशे! तव प्रसादाद्धि योगदृष्टियुतो नरः । अन्तस्सर्वपरित्यागी वीतरागी भवेद्ध्रुवम् ।। १०२ ।।
आशे! तुम्हारी कृपा से ही लोग योगदृष्टिवाले होते हैं, अंतरात्मा से सभी वस्तुओं का त्याग करके अवश्य वीतरागी होते हैं । ।। १०२ ।।
आशे ! त्वमेव सर्वज्ञा भवपाशनिकृन्तनी ।
त्वयि तस्मात्परा प्रीतिस्सदा मेऽस्तु भवे भवे ॥ १०३॥
आशे! तु ही सर्वज्ञा हो, तु ही भवबन्धन को काटनेवाली हो, अतः तुम्हारे ऊपर के प्रत्येक भव में मेरी प्रीति हो । । ।१०३।।
आशे! त्वां मुदितस्साक्षात्परब्रह्मस्वरूपिणीम्। चिद्विलासरतां वन्दे भावातीतां निरन्तरम् । । १०४ ।।
आशे! तुम साक्षात् प्रसन्न परब्रह्म स्वरूपा, लम्बे समय तक सात्त्विक भाव में लीन रहनेवाली, भावों से परे हो; तुम को सतत मै वन्दना करता हूँ। ।। १०४।।
विज्ञातात्मस्वरूपस्य सामरस्याधिकारिणः ।
आशे ! त्वं प्रीतिसंयुक्ता प्रिया ज्येष्ठा हि तात्त्विकी ।। १०५ ।।
आशे! तुम आत्मस्वरूप और समरसता के अधिकारी की तुम प्रीति से ओतप्रोत तत्त्व को जाननेवाली ज्येष्ठ प्रिया हो । ।। १०५।।