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संपादकीयः
प्रयोजन:
'स्याद्वादपुष्पकलिका' द्रव्यानुयोग का ग्रंथ है। द्रव्यानुयोग विषयक ग्रंथ की परिभाषा कठिन होती है, अतः वे दुरूह होते है। उसके अध्येता भी अल्प होते हैं। इसलिये द्रव्यानुयोग विषयक ग्रंथ की संख्या अति अल्प है। परिभाषागत कठिनाई के कारण द्रव्यानुयोग को सरल भाषा में प्रस्तुत करना चुनौती है। 'स्याद्वादपुष्पकलिका' यद्यपि अर्वाचीन ग्रंथ है फिर भी वह द्रव्यानुयोग को सरल भाषा में प्रस्तुत करता है, अतः उसका समीक्षात्मक संपादन करना आवश्यक है।
ग्रंथकर्ताः
'स्याद्वादपुष्पकलिका' के कर्ता खरतर गच्छ के महामनीषी वाचक श्री'संयम' है। उनके गुरु का नाम उपाध्यायश्री नवनिधि अथवा निधिउदय है। प्रशस्ति के अनुसार उनकी गुरुपरंपरा इस प्रकार है। खरतर गच्छ में आ.श्रीजिनसिंहसूरिजी हुए। उनके शिष्य आ.श्रीजिनराजसूरिजी हुए। उनके शिष्य श्री राम नामक उपाध्याय थे, उनके शिष्य श्री पद्महर्ष नामक उपाध्याय थे। उनके शिष्य श्री महिमंत्र(?) नामक उपाध्याय थे। उनके शिष्य श्री निधि नामक उपाध्याय थे। उनके शिष्य चारित्रनन्दी नामक उपाध्याय थे। ___आ.श्रीजिनसिंहसूरिजी → आ.श्रीजिनराजसूरिजी → श्री राम उपाध्याय → श्री पद्महर्ष उपाध्याय → श्री महिमंत्र(?) उपाध्याय → श्री निधि उपाध्याय → श्री संयम अथवा चारित्र उपाध्याय।
ग्रंथकर्ता ने अपना समय वि.सं.१९१४-प्रशस्ति में स्वयं बताया है। ग्रंथकार एवं उनकी रचनाओं के विषय में साक्षर उपाध्याय श्री विनयसागरजी का स्वतंत्र लेख इसी पुस्तक में अन्यत्र प्रस्तुत है।
पाण्डुलिपि परिचय:
स्याद्वादपुष्पकलिका की केवल दो पाण्डुलिपियां प्राप्त हुई है। एक पाण्डुलिपि लालभाई दलपतभाई संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदावाद की है। इसे यहां पर ला. संज्ञा दी गई है। सन् २००७ में मनीषीप्रवर प.पू.मुनिराज श्री धुरंधरविजयजी म. अमदावाद की विहारयात्रा में थे। अपनी दीर्घदृष्टि से आपने अनेक उपयोगी पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपि(झेरॉक्स) करवाई थी। उनमें से स्याद्वादपुष्पकलिका की प्रतिलिपि आपने मुझे संपादन हेतु दी, अतः मैं आपका ऋणी हूँ। ला. प्रत में केवल मूल श्लोक ही है। केवल मूल श्लोक के आधार पर ग्रंथ का अर्थघटन करना कठिन लग रहा था, अतः संपादन में बड़ी कठिनाई हो रही थी। इस प्रत के आधार पर संपादन प्रवर्तमान था तब ही 'अहो श्रुतज्ञानम्' के माध्यम से ज्ञात हुआ कि प.पू.मुनिराज श्री मोक्षांगरत्नविजयजी म.भी इसी ग्रंथ का संपादन कर रहे हैं। मेरी प्रार्थना स्वीकार कर
१. श्रीमत्खरतरे गच्छे जिनसिंहपदाऽधिपः। सूरिः श्रीजिनराजोऽभूद्भव्याऽम्भोजदिनेश्वरः॥१॥
सूरिपादाऽम्बुजे भृङ्गः श्रीरामपाठकोऽभवत्। जिनशासनधौरेयः पद्महर्षसुवाचकः॥२॥ गुरुदृष्टिसरोहंसाः सुखनन्दनकाञ्चनाः। महिमन्त्रो(?)पाध्यायाः बभूवुः श्रुतिपारगाः।।३।।
तच्छिष्यो निध्युपाध्यायोऽभवत्प्रौढशिरोमणिः। चारित्रवाचकश्चक्रे गुरुपादप्रसादतः॥४॥ २. अथ वत्सरदिवसगाथामाह-वत्सराऽब्धीन्दुखेटेन्दौ (वि.सं. १९१४) धर्मजन्यसुवासरे।