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आपने यह काम स्थगित कर दिया, अतः मैं आपका ऋणी हूँ। तत्पश्चात् न्यायविशारद वरेण्य विद्वान् प.पू.आ.दे.श्री विजयजयसुंदरसू.म. का पत्र मिला कि- आपके पास स्याद्वादपुष्पकलिका की पाण्डुलिपि है। आप चालीस साल से इसका संपादन करना चाहते थे किंतु कारणवशात् या संयोगवशात् हो न सका, अतः वे यह कार्य मुझे सौंप रहे हैं। आपने मुझे इस कार्य के योग्य समझा यह मेरा बडा सद्भाग्य है। मैं आपका अतीव आभारी हूँ। यह पाण्डुलिपि संवेगी (पगथियानो) उपाश्रय के हस्तप्रतसंग्रह की है। इसे यहां पर सं. संज्ञा दी गई है। इस पाण्डुलिपि में मूल ग्रंथ के साथ कर्ता ने स्वयं बनायी हुई व्याख्या भी है। इसके कारण अर्थघटन और संपादन में प्रतीत होने वाली कठिनाई की समस्या कम हो गई।
ला.- यह पाण्डुलिपि लालभाई दलपतभाई संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदावाद की है। (क्रमांक२०८६९) इसके १६ पत्र है। प्रत्येक पत्र पर १० पंक्तियाँ है। प्रत्येक पंक्ति में ३४ अक्षर है। अक्षर सुवाच्य है। इसमें केवल मूल ग्रंथ ही है। विषय के अनुरूप शीर्षक दिये है। अंत में लेखक की प्रशस्ति नहीं है।
सं.- यह पाण्डुलिपि संवेगी (पगथियानो) उपाश्रय के हस्तप्रतसंग्रह की है। इस पाण्डुलिपि में मूल ग्रंथ के साथ कर्ता ने स्वयं बनायी हुई व्याख्या भी है। इसके ५१ पत्र है। प्रत्येक पत्र पर १५ पंक्तियाँ है। प्रत्येक पंक्ति में ४१ अक्षर है। अक्षर सुवाच्य है । इस प्रत में ला.प्रत के अनुसार शीर्षक नहीं है। अंत में लेखक की प्रशस्ति इस प्रकार है
लेखक प्रशस्तिः-संवत् १९१४ ना आश्वीन कृष्ण ९ रवीवासरे ली. व्यास. सोमेश्वर शीवलाल स्तम्भतीरथे ठेकाणु छतरीसीपोलमध्ये ली. बोरपीपला आगल धरमशालामां॥ श्रीरस्तु कल्याणमस्तु शुभं भवतु॥श्रीः॥श्रीः॥श्रीः॥
इस प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि-ग्रंथ का रचनाकाल और लेखनकाल एक ही है। ग्रंथकर्ता ने लिखी हुई अथवा स्वयं देखी हुई प्रति के आधार पर यह प्रति लिखी गई है अर्थात् यह प्रति उपमूलादर्श है। संग्राहक' ने इस प्रति की प्रतिलिपि करवाते समय मूलादर्श की प्रशस्ति भी लिखी है। स्याद्वादपुष्पकलिका की केवल ये दो पाण्डुलिपियाँ हमें उपलब्ध हुई है।
संपादनपद्धतिः
स्याद्वादपुष्पकलिका के संशोधन में तीन प्रमुख समस्या थी।
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सङ्ग्राहक प्रशस्तिः
आसीन्नाशित-पाप-ताप-निकरो निर्मूलिताहङ्कृतिरर्हच्छास्त्रसमुद्रपारगमनो निस्तन्द्रचन्द्राननः॥ श्रीश्वेताम्बर-सङ्घ-मङ्गल-मुखं कर्मद्रु-दावानलः सूरिभूरिगुणालयोऽत्र विजयानन्दोऽह्यमन्दाशयः॥१॥ यो लुम्पाकमतं विहाय रभसा निर्वाणविघ्नप्रदं संवेगामृतपान-पुष्टचरितः सत्यं मतं सङ्गतः। योऽनेक-प्रतिपक्ष-पण्डित-गणं निर्जित्य जातोदयः स्वार्गं धाम जगाम काममथनश्चात्मादिरामाभिधः॥२॥ साध्वध्वाधमताददुर्व्यसनतो नानानरानावयन् भूपान् धर्मसुधां वटोदरनरेशादीन् बहून्याययन् । व्याख्यानात्प्रतिबोध्य धर्मरहितान् जीवावनं पालयन् मान्यश्रीविजयाङ्कितः कमलनामाचार्य एको बभौ ॥३॥ सिद्धान्ताद्विपरीतवर्तनरता दूरीकृताः स्वापरे येनाकारि दिगन्तकीर्तिरमला दत्त्वा च सद्देशनाम्। तं सङ्घो रुचिरेऽणहिल्लनगरेऽद्रीब्ध्यङ्कभूवत्सरे प्रेम्णा स्थापितवान् मुनीन्द्रविजयानन्दीयसत्पट्टके॥४॥ आत्माराममुनीश्वरस्य विदुषः शिष्यो विपश्चिद्वरः पूर्वोक्तस्य च पट्टदानसमये श्रीमानुपाध्यायकः। यत्सेवाकरणाच्च मूकबधिरः श्रोता च वक्ताऽभवत् पूज्योऽयं जयति स्म वीरविजयः प्रज्ञानुभावाञ्चितः॥५॥