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________________ १६८ स्याद्वादपुष्पकलिका ए पांच पर्याय कह्या ते सर्व द्रव्य मध्ये छ। ६ विभाव पर्याय ते जीव तथा पद्गल मध्येज छे, ते विभाव पर्याय जीवने नरनारकीपणुं पामवं ते तथा पुद्गलनो व्यणुक त्र्यणुकादि खंधनो मिलवू, अनंतागुण पर्यंत अनंतपुद्गल स्कंधरूप ते विभावपर्याय कहियें। ५१] मेर्वाद्यनादिनित्यपर्यायाः चरमशरीरत्रिभागन्यूनावगाहनादयः सादिनित्यपर्यायाः सादिसान्तपर्याया भवशरीराध्यवसायादयोऽनादिसान्तपर्याया भव्यत्वादयः। तथा च निक्षेपाः सहजरूपा वस्तुनः पर्याया एवं चत्तारो वत्थुपज्जाया इति भाष्यवचनान्नामयुक्ते प्रतिवस्तुनि निक्षेपचतुष्टयं युक्तम् उक्तं चानुयोगद्वारे जत्थ य जं जाणिज्जा, निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्थ य नो जाणिज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ॥ (अ.द्वा.सू.१) तत्र नामनिक्षेपः स्थापनानिक्षेपः द्रव्यनिक्षेपः भावनिक्षेपः। तत्र नामनिक्षेपो द्विविध:- सहजः साङ्केतिकश्च। स्थापनाऽपि द्विविधा-सहजा आरोपजा च। द्रव्यनिक्षेपो द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च। तत्र आगमतः तदर्थज्ञानानुपयुक्तो नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतदव्यतिरिक्तभेदात्रिधा। भावनिक्षेपो द्विविध:- आगमतो नोआगमतश्च तज्ज्ञानोपयुक्तः तद्गुणमयश्च वस्तुस्वधर्मयुक्तम्। तत्र निक्षेपा वस्तुनः स्वपर्याया धर्मभेदाः।। [५१] अर्थ- पुद्गलनु मेरुप्रमुख ते अनादि नित्य पर्याय छे। जीवनी सिद्धावस्था, सिद्धावगाहनादिक, ते सादि नित्य पर्याय छे, तथा भाव अने शरीर तथा अध्यवसाय ए त्रण प्रकारना योगस्थान जे वीर्यना क्षयोपशमथी ऊपना तेमां कषायस्थान जे चेतननो क्षयोपशम कषायना उदयथी मिल्या अने संयमस्थान जे चारित्रनो क्षयोपशम परिणमी जे चेतनादिक गुण ए सर्व अध्यवसायस्थानक ते सादि सांत पर्याय छ। तथा सिद्धिगमन योग्यता धर्म ते भव्यपणो ए पर्याय ते अनादि सांत छे, जे सिद्धत्वपणो प्रगटे भव्यत्वपर्यायनो विनाश छे ते माटे अनादिकालनो छे पण अंत थवा सहित छे, माटे अनादि सांतपर्याय छे, एम पर्याय अनेक जाणवा। तथा वस्तुमा सहजना जे चार निक्षेपा छे, ते पण वस्तुना स्वपर्याय छे, ते श्रीविशेषावश्यकनी भाष्यमध्ये कह्यो छ। चत्तारो वत्थुपज्जाया ए वचन छे ते माटे स्वपर्याय कहिये। वली श्री अनुयोगद्वारसूत्रमा कह्यो छे-जिहां जे वस्तुना जेटला निक्षेपा जाणिये तिहां ते वस्तुना तेटला निक्षेपा करिये। कदाचित् वधता निक्षेपा भासनमां न आवे तोपण १ नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ भाव ए चार निक्षेपा तो अवश्य करवा। तेमां नामनिक्षेपना बे भेद छे-१ सहजनाम, २ सांकेतिक नाम, ते कोइनो को नाम। तथा स्थापनाना बे भेद छे-१ सहजस्थापना ते वस्तुनी अवगाहनारूप, २ आरोपस्थापना ते आरोपथी थइ माटे कृत्रिम कहिये, आरोपजा कहिये। हवे द्रव्य निक्षेपाना बे भेद छे ते कहे छे, १ आगमथी द्रव्यनिक्षेपो ते जे पुरुष स्वरूपने जाणे पण हमणां ते उपयोगे नथी ते आगमद्रव्यनिक्षेप। जे वस्तु ते गुण सहित छे पण हमणां तेपणे वर्तता नथी तेने नोआगम कहिये तेहना त्रण भेद छे-१ ज्ञशरीर जेहना हता पण मरण पाम्या तेथी तेनुं शरीर जे ऋषभदेवना शरीरनी भक्ति श्रीजंबूद्वीपपन्नत्तिमां छे, २ भव्यशरीर ते हमणां तो गुणमय नथी पण गुणमय थशे, जेम अयमत्तामुनि, ए भव्यशरीर जाणवो, ३ तद्व्यतिरिक्त जे ते गुणे वर्ते छे पण ते उपयोगे हमणां वर्तता नथी। भावनिक्षेपाना बे भेद १ आगमथी भावनिक्षेपो ते आगमना अर्थनो जाण वली ते उपयोगें वर्ते छे, २ नोआगमथी भावनिक्षेपो ते जेपणे ज्ञ वर्ते छे तेज रूप छे, ए रीते निक्षेपा कहेवा।। एचार निक्षेपामा पहेला त्रण निक्षेपा ते कारणरूप छे अने चोथो भावनिक्षेपो ते कार्यरूप छ। ते भावनिक्षेपाने निपजावतां पहेला त्रण निक्षेपा प्रमाण छे नहीं तो अप्रमाण छ। पहेला त्रण निक्षेपा द्रव्यनय छ। एक भावनिक्षेपो ते भावनय छ। भावनिक्षेपाने अणनिपजावतां एकली द्रव्यनी प्रवृत्ति ते निष्फल छ। एम श्री आचारांगनी टीकामां लोकविजय अध्ययने का छे ते लखीये छैये। ___फलमेव गुणः फलगुणः फलं च क्रिया भवति तस्याश्च क्रियायाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररहिताया ऐहिकामुष्मिका) प्रवृत्ताया आनात्यन्तिकोऽनैकान्तिको भवेत्, फलं गुणोऽप्यगुणो भवति सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रक्रिया यास्त्वैकान्तिकानाबाधसुखाख्यसिद्धिगुणोऽव्याप्यते। एतदुक्तं भवति- सम्यग्दर्शनादिकैव क्रियासिद्धिः फलगुणेन फलवत्यपरा तु सांसारिकसुखफलाभ्यास एव फलाध्यारोपान्निष्फलेत्यर्थः। एटले रत्नत्रयी परिणमन विना जे क्रिया करवी ते थकी संसारीक सुख थाय ते क्रिया निष्फल छे ए पाठ छे माटे भावनिक्षेपाना कारण विना पहेला त्रणे निक्षेपा निष्फल छ। निक्षेपा तो मूलगी वस्तुना पर्याय छे द्रव्यनो स्वधर्मज छे।
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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