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________________ अष्टमं परिशिष्टम् १६७ इहां व्याख्यांतरे जे गुणकरण छे तेने कर्तादिकपणो ते सामर्थ्य छे, जाणवो देखवो ते कार्य छे, केटलीक शक्ति जीवमांज छे, अने केटलीक पंचास्तिकाय मध्ये छ। तथा देवसेनकृत नयचक्रमध्ये जीवने अचेतन स्वभाव, मूर्त स्वभाव, तथा पुद्गल परमाणुने चेतन स्वभाव, अमूर्त स्वभाव कह्या ते असत् छ। एतो आरोपणपणे कोइक कहे ते कथनमात्र जाणवो। पण ए वात छतीमां नथी। जे धर्म आरोपें तथा उपचारें गवेषाय ते वस्तुनो धर्म नथी। उपाधिथी थाय छे, ते माटे जे उपाधि ते वस्तुनी सत्ता नथी एम धारQ। [४९] धर्मास्तिकाये अमूर्ताचेतनाक्रियगतिसहायादयो गुणाः अधर्मास्तिकाये अमूर्ताचेतनाक्रिय-स्थितिसहकारादयो गुणाः। आकाशास्तिकाये अमूर्ताचेतनाक्रियावगाहनादयो गुणाः। पुद्गलास्तिकाये मूर्ताचेतनसक्रियपूरणगलनादयो वर्णगन्धरसस्पर्शादयो गुणाः। जीवास्तिकाये ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याऽव्याबाधामूर्ताऽगुरुलध्वनवगाहादयो गुणाः। एवं प्रतिद्रव्यं गुणानामनन्तत्वं ज्ञेयम्। [४९] अर्थ- धर्मास्तिकायना गुण चार १ अरूपी, २ अचेतन, ३ अक्रिय, ४ गतिसहाय इत्यादि अनंतगुण छ। अधर्मास्तिकायना गुण चार १ अरूपी, २ अचेतन, ३ अक्रिय, ४ स्थितिसहाय, इत्यादि अनंतगुण छे। आकाशास्तिकायना गुण चार १ अरूपी, २ अचेतन, ३ अक्रिय, ४ अवगाहनादिक अनंतगुण छ। पुद्गलास्तिकायना गुण चार छे १ रूपी, २ अचेतन, ३ सक्रिय, ४ पूरणगलन।१ वर्ण, २ गंध, ३ रस, ४ स्पर्श इत्यादिक गुण अनंता छ। जीवास्तिकायने विषे १ ज्ञान, २ दर्शन, ३ चारित्र, ४ वीर्य, ५ अव्याबाध, ६ अरूपी, ७ अगुरुलघु, ८ अनवगाहादिक अनंतगुण छे, ए रीते अनंता गुण जाणवा। [५०] पर्यायाः षोढा द्रव्यपर्याया असङ्ख्येयप्रदेशसिद्धत्वादयः। १ द्रव्यव्यञ्जनापर्यायाः द्रव्याणां विशेषगुणाश्चेतनादयश्चलनसहायादयश्च, २ गुणपर्याया गुणाविभागादयः,३ गुणव्यञ्जनपर्याया ज्ञायकादयः कार्यरूपा मतिज्ञानादयो ज्ञानस्य, चक्षुर्दर्शनादयो दर्शनस्य, क्षमामार्दवादयश्चारित्रस्य, वर्णगन्धरसस्पर्शादयो मूर्तस्य इत्यादि ४ स्वभावपर्याया अगुरुलघुविकाराः ते च द्वादशप्रकाराः षड्गुणहानिवृद्धिरूपा अवाग्गोचराः। एते पञ्च पर्यायाः सर्वद्रव्येषु, विभावपर्याया जीवे नरनारकादयः। पुद्गले व्यणुकतोऽनन्ताणुकपर्यन्ताः स्कन्धाः। [५०] अर्थ- हवे नयज्ञान करवानो अधिकार कहे छ। तिहां द्रव्यास्तिकायना मूल बे भेद छ। १ शुद्ध द्रव्यास्तिक, २ अशुद्धद्रव्यास्तिक, अने देवसेनकृत पद्धतिमां द्रव्यास्तिकना दश भेद कर्या छे ते सर्व ए बे भेद मध्ये समाय छे, तथा ते सामान्य स्वभावमां समाणा छे ते माटे इहां न वखाण्या।। हवे पर्यायना छ भेद कहे छ। तिहां प्रथम १ जे द्रव्यने विषे एकत्वपणे रह्या जे जीवादिकना असंख्याता प्रदेश तथा आकाशना अनंता प्रदेश ए द्रव्य पर्याय कहिये। २ सिद्धत्वादिक अखंडत्वादिक तथा द्रव्यनो व्यंजक कहेता प्रगटपणो जे माने छे ते द्रव्यव्यंजनपर्याय कहिये। द्रव्यनो विशेष गुण जे अन्य द्रव्यमां नथी तेने विशेष गुण कहिये। ते जीवने चेतनादिक अने धर्मास्तिकायमां चलणसहकार तथा अधर्मास्तिकायमां स्थिरसहकार, आकाशमां अवगाहदान, पुद्गलमां पूरणगलनरूप ए सर्व द्रव्यनी भिन्नताने प्रगट करे छे ते माटे ए धर्मने व्यंजनपर्याय कहिये। ३ एक गुणना अविभाग अनंता छे तेनो पिंडपणो ते गुणपर्याय कहिये। ४ गुणव्यंजन पर्याय ते ज्ञाननो जाणंगपणो तथा चारित्रनो स्थिरतापणो इत्यादिक अथवा ज्ञानगुणना भेदांतर ज्ञानना भेद जे मतिज्ञानादिक पांच तथा दर्शनगुणना चक्षुर्दर्शनादिक भेद तथा चारित्रगुणना क्षमादिक भेद, पुद्गलनो रूपीगुण तेना भेद वर्ण, गंध, रस, स्पर्श संस्थानादिक। अरूपी गुणना अवन्ने, अगंधे, अरसे, अफासे, इत्यादिक चार चार जाणवा ते गुणव्यंजनपर्याय।। ५ स्वभाव पर्याय ते वस्तुनो कोइक स्वभावज एवो छे जे अगुरुलघुपणे छ प्रकारनी वृद्धि तथा छ प्रकारनी हानि एवी रीते बार प्रकारे परिणमे छे। इहां कोइ प्रेरकनो योग नथी, वस्तुने मूल धर्मनो हेतु छ। एनुं स्वरूप पूरूं वचनगोचर नथी। अनुभव गम्य नथी। केमके श्रीठाणांगसूत्रनी टीका मध्ये श्रुतज्ञान वृद्धिना सात अंग छ। तिहां प्रथम सूत्र अंग, बीजू नियुक्ति अंग,३ भाष्य अंग, ४ चूर्णिवालो सूत्रादि सर्वना अर्थ कहे छे, ५ टीका व्याख्या निरन्तर ए पांच अंग तो ग्रंथरूप छे, तथा छट्ठो अंग परंपरारूप छे तथा सातमुंअंग अनुभव ए साते कारणे विनय सहित भणतां सुणतां थकां, साचा अर्थ पामीने आत्मानं निर्मल ज्ञान थाय। श्री भगवतीसूत्रे गाथा सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ निज्जुत्तिमिसिओ भणिओ। तइयो अनिरवसेसो, एस विहि होइ अणुओगे॥ (भ.सू.९४)
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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