________________
अष्टमं परिशिष्टम्
१४५
जिहां लगे आत्मानुं शुद्धस्वरूप चिदानंदघन ते साध्यमां नथी अने पुद्गलसुखनी आशाये विष, गरल, अन्योन्य अनुष्ठान जे करवू ते संसारहेतु छ। माटे साध्यसापेक्षपणे स्याद्वादश्रद्धायें साधन करवू एहिज मार्ग छ। अने ए मार्गनी जे प्रतीतरुचि ते सम्यक्त्व कहियें। ते सम्यक्त्व ग्रंथिभेद कर्ये पामियें। ते ग्रंथिभेद तो त्रण करण करे तो जडे। ते त्रण करण जीव करे तेवारें सम्यक्दर्शन पामे। ते त्रण करणमां पहेलुं यथाप्रवृत्तिकरण, बीजं अपूर्वकरण, त्रीजं अनिवृत्तिकरण। ए करण सर्व संज्ञी पंचेन्द्रि करे। तेमां प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण ते भव्य तथा अभव्य पण करे। कोइक जीव अनंतीवार करे। ते यथाप्रवृत्तिकरण, स्वरूप लखियें छैये।
सर्वकर्मनी उत्कृष्टस्थितिना बांधनार जीवने संक्लेश घणो छे माटे यथाप्रवृत्तिकरण करे नही।उक्तं च विशेषावश्यकेउक्कोसठ्ठिन लम्भइ भयणा एएसु पुव्वलद्धाए। सव्वजहन्नठिइसु वि, न लब्भइ जेण पुव्वपडिवन्नो॥ (वि.आ.भा.११९१,११९२)
माटे कर्मनी उत्कृष्टस्थितिनो बांधनार जीव ते चार सामायिकनो लाभ न पामे, अने जे जीव सात कर्मनी जघन्य स्थिति बांधे ते जीव तो गुणवंत ज छे ए रीत छ। माटे जे वारें एक कोडाकोडी सागरोपम पल्योपमने असंख्यातमें भागे उणी स्थिति बांधतो होय ते यथाप्रवृत्तिकरण करे। जे जीव कर्मक्षपणारूप शक्ति पाम्यो न हतो ते शक्ति पाम्यो तेने यथाप्रवृत्तिकरण कहिये। उक्तं च भाष्ये
येन अनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तं कर्मक्षपणं क्रियते अनेनेति करणं जीवपरिणाम एव उच्यते अनादिकालात् कर्मक्षपणप्रवृत्तावध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तिकरणमित्यर्थः।।
क्षयोपशमी चेतनावीर्य जे संसारनी असारता जाणे, संसार दुःखरूप करी जाणे, तेथी परिग्रह शरीरथी खरे उद्वेगें उदासीनता परिणामे करी सात कर्मनी स्थिति अनेक कोडाकोडीना थोकडा अंसख्याता जे सत्तामा हता ते खपावे ने कांइक उणी एक कोडाकोडी राखे। ए यथाप्रवृत्तिकरण आत्मा अनंतीवार करे, पण ग्रंथिमेद करी शके नही। ए करण ते गिरि नदीने विचे आव्युं पाषाण ते घंचना घोलनारूप चालवे करीने जेम सहेजे सुंहालो थाय, अने कोइक आकार पकडे तेम जन्ममरणादि दःखने उद्वेगे अनाभोगथी ज भववैरागें जीव यथाप्रवृत्तिकरण करे। एहिज जीव कोइक रीते वैराग्यं विचारे जे भवभ्रमण ते दुःख छे, ए संयोगवियोगादि असार छे पण काइक ज्ञानानंदादि ते सार छ। एहवी गवेषणा करनारो जीव ते यथाप्रवृत्तिकरण करीने अपूर्वकरण करे।
इहां कोइ पुछे जे भव्यने तो पलटण योग्यता छे पण अभव्य जीव केम करे? तेनुं उत्तर जे तीर्थंकरभक्तिमा जे देवतानी महिमा तथा लोकसन्मानादिक देखीने पुण्यनी वांछायें देवत्वराज्यादिक लाभइच्छायें इग्यार अंग तथा बाह्य पंच महाव्रतादि पामे पण तेने सम्यक्त्व न होय। जे पुद्गलाभिलाषी छे तेने गुणस्पर्श न थाय। उक्तं च महाभाष्ये
अर्हदादिविभूतिमतिशयवतीं दृष्ट्वा धर्मादेवंविधसतारो देवत्वराज्यादयः प्राप्यन्ते इत्येवं समुत्पन्नबद्धरभव्यस्यापि देवनरेन्द्रादिपदेहया निर्वाणश्रद्धारहितकष्टानुष्ठानं किंचिदगीकुर्वतो ज्ञानरूपस्य श्रुतसामायिकमात्रलाभेऽपि सम्यक्त्वादिलाभः श्रुतस्य न भवत्येवेति।
एरीतें धार।
तथा अपूर्वकरण अने अनिवृत्तिकरणनो अधिकार जेम आगमसारमा लख्यो छे तेज प्रमाणे इहां पण जाणवो। इम त्रण करण करीने उपशम अथवा क्षयोपशम अथवा क्षायिक सम्यक्त्व जे पाम्यो अने आत्मप्रदेशे व-माने सम्यक्दर्शनगुणनो रोधक एहवो मिथ्यात्व मोहप्रकृतिना विपाकोदयने टलवे करीने जे सम्यक्दर्शनगुणनी प्रवृत्ति थाय तेथी यथार्थपणे निर्धार सहित जाणपणो प्रवर्ते ते जीवने द्रव्यानुयोगें तत्त्वज्ञान प्रगटे। तेथी जे आत्मगुण प्रगटे ते आत्मगुणरक्षणायें ज प्रवर्ते एहवी स्वरूपानुयायी आत्मगुणनी प्रवृत्ति तेहने धर्म करी सद्दहे।
ते माटे स्याद्वादपरिणामी पंचास्तिकाय छ। ते स्याद्वादरूप ज्ञान ते नयज्ञाने थाय; माटे नयसहित ज्ञान करवू ते नयज्ञान अति दुर्लभ छ। अने नयनी अनंतता छ। उक्तं च
जावइया वयणपहा तावइया चेव हंति नयवाया॥(स.त-१४४)
ते जे पूर्वापर सापेक्ष नही ते कुनय कहियें, अने सर्वसापेक्षपणे वर्ते ते सुनय कहिये। ते मूल सात नय छे तेनुं स्वरूप अल्पमात्र लखियें छैयें।
२. उक्कोसठिई न लहइ महाउए पुव्वलद्धाई। आउयजहन्नठिइओ न लभए तो जेण पुव्बपडिवन्नो।।