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________________ अष्टमं परिशिष्टम् ॥श्री परम गुरुभ्यो नमः॥ श्रीदेवचंद्रजीकृतः नयचक्रसारः बालावबोधसहितः ॥मंगलाचरणम्॥ [१] प्रणम्य परमब्रह्मशुद्धानन्दरसास्पदम्। वीर सिद्धार्थराजेन्द्रनन्दन लोकनन्दनम्॥१॥ नत्वा सुधर्मस्वाम्यादिसङ्गं सद्वाचकान्वयम्। स्वगुरून् दीपचन्द्राख्यपाठकान् श्रुतपाठकान्॥२॥ नयचक्रस्य शब्दार्थकथनं लोकभाषया। क्रियते बालबोधार्थं सम्यमार्गविशुद्धये॥३॥ श्रीजिनागमने विषे १ द्रव्यानुयोग २ चरणकरणानुयोग ३ गणितानुयोग ४ धर्मकथानुयोग ए चार अनुयोग कह्या छ। तेमा छ द्रव्य अने नव तत्त्व तेना गुणपर्याय स्वभाव परिणमनने जाणवू ते द्रव्यानुयोग। एवं पंचास्तिकायन स्वरूप कथनरूप छे ते पंचास्तिकायमध्ये एक आत्मा नामे अस्तिकाय द्रव्य छे, ते आत्मा अनंता छे, तेना मूल बे भेद छे, तेमां एक सिद्ध निष्पन्न सर्वकर्मावरणदोषरहित संपूर्ण केवलज्ञान केवलदर्शनादि गुणप्रकटरूप, अखंड, अमल, अव्याबाधानंदमयी, लोकने अंते विराजमान, स्वरूपयोगी ते सिद्धजीव कहियें। ते सिद्धता सर्व आत्मानो मूल धर्म छे। ते सिद्धतानी ईहा करवाने सिद्धभगवंतोनो यथार्थसिद्धपणो ओलखीने निष्पन्न सिद्धनो बहुमान करवो, अने पोते पोतानी भूले अशुद्धचेतनपणे परिणमतां बांध्यां जे ज्ञानावरणादिकर्म ते टालीने पोतानी संपूर्ण सिद्धतानी रुचि करवी एही जे हितशिक्षा छ। वली बीजो भेद संसारी जीवोनो छे। ते जेणे आत्मप्रदेशें स्वकर्तापणे कर्मपुद्गलने ग्रह्या, जेने कर्मपुद्गलनो लोलीभाव छे ते मिथ्यात्व गुणठाणाथी मांडीने अयोगीकेवली गुणठाणाना चरमसमयपर्यंत सर्व संसारीजीव कहियें। तेना वली बे भेद छे-एक अयोगी, बीजा सयोगी। ते सयोगीना बे भेद-एक सयोगीकेवली, बीजा सयोगी छद्मस्था छद्मस्थना बे भेद-एक अमोही, बीजा समोही। समोहीना बे भेद छे-एक अनुदितमोही, बीजा उदितमोही। उदितमोहीना बे भेद-एक सूक्ष्ममोही, बीजा बादरमोही। बादरमोहीना बे भेद-एक श्रेणिवंत, बीजा श्रेणिरहित। श्रेणिरहितना बे भेद-एक संयमी विरति, बीजा अविरति।अविरतिना वली बे भेद-एक समकिती, बीजा मिथ्यात्वी। मिथ्यात्वीना बे भेद-एक ग्रंथिभेदी, बीजा ग्रंथिअभेदी। ग्रंथिअभेदिना बे भेद-एक भव्य, बीजा अभव्य। तेमां अभव्यजीवोनुं तो दल ज एवो होय जे श्रुतअभ्यास पण करे तथा द्रव्यथी पंच महाव्रत आदरे पण आत्मधर्मनी यथार्थ श्रद्धा विना पहेलो गुणठाणो किवारे मूके नही। माटे ए जीवो ते सिद्धपद पामवाने योग्य नही ते अभव्य चोथे अनंते छ। बीजा भव्य ते जे सिद्धपणाने योग्य छे, जेने कारणयोग मिले पलटण पामे। ते भव्यजीवो अभव्यथी अनन्तगुणा छे ते मध्ये केइक भव्य सामग्रीयोग पामी ग्रंथिभेद करीने समकित पामे अने केटलाएक भव्य तो सामग्रीने अभावें समकित पामे ज नही। उक्तं च विशेषणवत्याम सामग्गिअभावाओ, ववहाररासिअप्पवेसाओ। भव्वा वि ते अणंता, जे सिद्धसुहं न पावंति॥ (सं.श.७१) पण ते भव्य जीवोमां योग्यता धर्म छतो छे ते माटे भव्य कहिये। जे जीव मिथ्यात्व तजीने शुद्ध यथार्थ आत्मपणे व्यापक रह्यो तेज मारो धर्म, अने जेथी ते आत्मसत्तागत धर्म प्रगटे ते साधनधर्म। तेना बे भेद छे-एक वायणा-पुछणादि, वंदन-नमनादि, पडिलेहणप्रमार्जनादि जेटली योगप्रवृत्ति ते सर्व द्रव्यथी साधनधर्म कहिये। ते भावधर्म प्रगट करवाने जे करे तेने कारणरूप छे। द्रव्य ते जे भावनुं "कारण कारया से दव्वं” इति आगमवचनात्। अने जे उपयोगादि पोताना क्षयोपशमभावें प्रगट्या जे ज्ञानवीर्यादिगुण ते पुद्गलानुयायीपणाथी टालीने शुद्धगुणी जे श्रीअरिहंतसिद्धादिक तेना शुद्धगुणने अनुयायी करवा। अथवा आत्मस्वरूप अनंतगुणपर्यायरूप तेने अनुयायी करवा ते भावथी साधनधर्म जाणवो। एआत्मा नीपजाववानो उपाय छ। १. न दृश्यते एषा गाथा विशेषणवत्याम्।
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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