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________________ १४६ स्याद्वादपुष्पकलिका नय ते ज्ञानगुण- प्रवर्तन छ। जे कारणे एकद्रव्यमध्ये अनंता धर्म छे, ते एक समये श्रुतोपयोगमां आवे नही, स्या माटे? जे श्रुतज्ञाननो उपयोग असंख्याता समयें थाय। अने वस्तुमध्ये तो अनंता धर्म एक समये परिणमता पामिये। तेवारे श्रुतज्ञान सत्य थाय नही। ते माटे नयें करी जाणे। तथा यद्यपि केवलीनो उपयोग एकसमयी छे ते माटे जाणवामां नयनें कार्य केवलीने पडे नही, पण वचने कहेतां केवलीने पण नयें करी कहेवं पडे, कारण के वचन तो क्रमे करीने बोलाय छे अने वस्तधर्म अनंता एकसमयकालें छे ते माटे नयें करी कहे। वली जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्य कहे छे: जीवादि द्रव्यमा जे गुण छे ते अनंतस्वभावी छ। गुणनी छति तेनुं परिणमन तेनी प्रवृत्ति तेमां जे समये कारणता ते समये ज कार्यता इत्यादि अनेकपरिणतिसहित छ। तेथी कोइक रीते सर्व- भिन्नाभिन्नपणे ज्ञान थाय ते नयथी थाय। माटे समकितरुचि जीवने नयसहित ज्ञान करवू जे एटला धर्म सर्वद्रव्य मध्ये रह्या छे माटे प्रथमतो श्रीगुरुकृपाथी द्रव्यगुणपर्याय ओलखावे छ। ए पीठिका कही। हवे मूलसूत्रना अर्थव्याख्यान करे छे [१] श्रीवर्धमानमानम्य, स्वपरानुग्रहाय च। क्रियते तत्त्वबोधार्थं, पदार्थानुगमो मया। [१] अर्थ- श्री कहेता गुणनी शोभा अतिशय शोभायें विराजमान एहवा श्रीवर्द्धमान अरिहंत शासनना नायक ते प्रते अत्यन्तपणे नमीने नमस्कार करीने पोतानो मान मूकी त्रण योग समारी गुणीने अनुयायी चेतनान करवं तेने नमवू कहिये ते पण स्व कहेता पोताने अने पर जे शिष्य अथवा श्रोतादिकने अनुग्रह कहेता उपकारने सारु तत्त्व कहेता यथार्थ वस्तुधर्म तेने बोध कहेता जाणवाने अर्थे पदार्थ कहेता धर्मास्तिकायादिक छ मूलद्रव्य तेनो अनुगम कहेता साचो प्ररुपवो ते क्रियते कहेता करियें छैयें। जगतमा मतांतरीओ द्रव्यने अनेकपणे कहे छे, तिहां नैयायिक सोल पदार्थ कहे छ। वैशेषिक सात पदार्थ कहे छ। वेदांती, सांख्य एक पदार्थ कहे छ। मीमांसक पांच पदार्थ कहे छ। पण ते सर्व मिथ्या छ। तेणे पदार्थ- स्वरूप जाण्यु नथी अने श्रीअरिहंत सर्वज्ञ प्रत्यक्षज्ञानी ते एक जीव अने पांच अजीव ए रीते छ पदार्थ कहे छ। इहां कोइ पूछे जे नवतत्त्वरूप नव पदार्थ कह्या छे ते केम? तेने उत्तर जे एक जीव, बीजो अजीव, ए बे पदार्थ तो मूल छे अने शेष सात तत्त्व तो जीव अजीवनो साधक-बाधक, शुद्ध-अशुद्ध परिणतिनी अवस्था भिन्न ओलखवाने कर्या छे। श्लोक[२] द्रव्याणां च गणानां च, पर्यायाणां च लक्षणम्। निक्षेपनयसंयुक्तं, तत्त्वभेदैरलङ्कृतम्॥ तत्र तत्त्वभेदपर्यायैर्व्याख्या तस्य जीवादेर्वस्तुनो भावः स्वरूपतत्त्वम्। [२] अर्थ-द्रव्यना, गुणना तथा पर्यायना लक्षण जे ओलखाण ते निक्षेपे करी तथा नयें करी युक्त तत्त्वना भेद सहित कहुं छु। तत्र कहेता तिहां जिनागमने विषे तत्त्व जे वस्तुस्वरूप, भेद तेना जूदा जूदा भेदपर्याय तेमां रह्या जे धर्म एटला प्रकारे व्याख्या कहेता अर्थकहेवू तेणे करीने यथार्थ व्याख्यान थाय, तिहां तत्त्वतुं लक्षण कहे छ। व्याख्यान करवा योग्य जे जीवादिक वस्तु तेनो मूल धर्म ते वस्तुन स्वरूप तत्त्व कहिये। जेम कंचननं स्वरूप पीत गुरु स्निग्धतादि तथा एन कार्य आभरणादिक अने एहन फल ते एहथी अनेक भोग्यवस्तु आवे। एम जीवनुं स्वरूप ज्ञान दर्शन चारित्रादि अनंत गुण, तथा जीवनुं कार्य सर्वभाव- जाणवू प्रमुख। ए रीते अभेदपणे रह्या जे धर्म ते सर्व वस्तुनुं तत्त्व कहिये। [३] येन सर्वत्राविरोधेन यथार्थतया व्याप्यव्यापकभावेन लक्ष्यते वस्तुस्वरूपं तल्लक्षणम्। तत्र द्रव्यभेदा यथा जीवा अनन्ता: कार्यभेदेन भावभेदा भवन्ति। क्षेत्रकालभावभेदानामेकसमुदायित्वं द्रव्यत्वम्। ३अर्थ- हवे लक्षण कहे छ। जे गुणे करी सर्वद्रव्य स्वजातिमां अविरोधिपणे यथार्थपणे १ अतिव्याप्ति २ अव्याप्ति [३] असंभवादि दोषरहित वस्तु जे व्याप्य तेहने विषे व्यापकपणे लखियें जाणियें तेने वस्तुनुं लक्षण कहिये। ते लक्षण बे प्रकारचं छे। एक लिंगबाह्य आकाररूप अने बीजं वस्तुमा रह्यो जे स्वरूप ते। ए बे भेद छे। तेमां लिंगथी तो गायनुं लक्षण जे सास्नासहितपणो ते बाह्य आकाररूप लक्षण छ। ए बाह्य लक्षणे जे ओलखाण करे ते बालचाल छे अने जे वस्तुने धर्मे ओलखाय ते स्वरूपलक्षण कहिये। जेम चेतनालक्षण ते जीव, तथा चेतनारहित ते अजीव, इत्यादिक लक्षणे लक्षणस्वरूप जाणवो। एम अनेक रीते जाणी लेवो। भेदाश्च- हवे भेदनुं स्वरूप कहे छ। वक्तव्यवस्त्वंशाः कहेता जे वस्तु कथन करता होय तेहना चार भेद छ। तत्र द्रव्यभेदा कहेता तिहां द्रव्यना भेद मूल लक्षणे सरिखा पण पिंडपणे जूदा छे ते द्रव्यथी भेद कहियें। यथा कहेता जेम सर्वजीव जीवत्वसामान्ये सरिखा छे, पण जीव प्रते पोताना गुणपर्यायनो पिंडपणो जूदो छ। कोइनु कोइमां मिलि जातो नथी। ते माटे जीव अनंता द्रव्यभिन्नपणे,
SR No.009265
Book TitleSyadvada Pushpakalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitranandi,
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages218
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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