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होते हैं। शेष जीव- एकेन्द्रिय, नारक, विकलेन्द्रिय ये सभी हुण्डक संस्थान वाले होते है। पृथ्वीकाय का संस्थान मसूर जैसा है। पानी सिबुकाकार है। अग्निकाय सूई के आकार की होती है। वायुकाय पताकाकार है । एवं वनस्पतियों विविध आकार वाली होती है ।
(१९) अवगाहना - ३ । शरीरप्रमाण को अवगाहना कहते हैं। यह अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से पर्याय की अपेक्षा से दो प्रकार की है। तथा विषय के भेद से यह तीन प्रकार की है- जैसे औदारिक शरीर विषयक, भवधारिवैक्रियशरीर विषयक एवं उत्तरवैक्रियशरीर विषयक। जिन जीवों की जितनी अवगाहना होती है उनका ग्रन्थानुसारेण चिन्तन करें ।
(२०) कर्मों की मूल प्रकृति बन्ध- आठ कर्मों की मूल प्रकृतियाँ आठ है। कौन सा जीव किस समय आठ कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध करता है उस का चिन्तन करें।
(२१) कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ - कर्मों की १२० उत्तर प्रकृतियों का चिन्तन करें ।
(२२) समुद्धात - ७ । वेदना आदि के साथ एकीभाव यानी तद्रूप हो कर प्रबलता के साथ अशाता वेदनीय आदि कर्मों को नाश करना समुद्धात है। यह समुद्धात सात प्रकार का है - (१) वेदना (२) कषाय (३) मारणान्तिक (४) वैक्रिय (५) तैजस (६) आहारक (७) केवली । प्रथम छह समुद्धात छद्मस्थ जीवों के होते हैं। सातवाँ समुद्धात केवली का होता है।
नारकी में प्रथम चार समुद्धात पाये जाते है। देवता के १३ दण्डक में प्रथम के पाँच समुद्धात पाये जाते है। वायु में चार समुद्धात पाये जाते है। चार स्थावर एवं तीन विकलेन्द्रियों में प्रथम के तीन समुद्धात पाये जाते है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय में प्रथम पाँच समुद्धात पाये जाते है। एवं मनुष्य में सातों समुद्धात होते हैं।
केवली समुद्धात - किसी केवली भगवान के आयु कर्म की स्थिति थोडी रहती है और शेष तीनवेदनीय नाम, गोत्र कर्मों की स्थिति अधिक होती है उस विषम स्थिति को आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिए केवली भगवान केवली समुद्धात करते हैं। जो केवली भगवान केवली समुद्धात करते है वे पहले आवर्जीकरण करते है। उसके बाद ही समुद्धात की प्रक्रिया करते है। आवर्जीकरण का काल असंख्यात समय प्रमाण अन्तर्मुहूर्त का है। आवर्जीकरण का अर्थ है आत्मा को मोक्ष की और अभिमुख करना ।
केवली समुद्धात में आठ समय लगते हैं। पहले समय में केवली भगवान ऊपर और नीचे लोक पर्यन्त चौडाई में अपने शरीर प्रमाण दण्ड करते हैं। दूसरे समय में कपाट, तीसरे समय मन्थान करते हैं और चौथे समय में सारा लोक भर देते हैं। पाँचवें समय में लोक का संहरण करते है, छठे समय में मन्थान का सातवें समय में कपाट का और आठ वें समय में दण्ड का संहरण कर केवली भगवान शरीरस्थ हो जाते हैं। केवली समुद्धात में केवल काययोग की ही प्रवृत्ति होती है। काययोग में भी औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग इन तीन की ही प्रवृत्ति होती है, शेष चार काययोग की नहीं। पहले और आठवें समय में औदारिक काययोग प्रवर्तता है; दूसरे, छठे, सातवें समय में औदारिकमिश्र काययोग प्रवर्तता है और तीसरे चौथे व पाँचवें समय में कार्मण काययोग प्रवर्तता है । केवली; समुद्धात अवस्था में मुक्त नहीं होते । समुद्धात की समाप्ति के बाद ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।
१ संदर्भ गाथा - ६५/६६/६७/६८/६९/७०,
३ संदर्भ गाथा - १०० से १२१ तक तथा १२९ से १५२ तक, ५ संदर्भ गाथा - १२५/१२६/१२७/१२८
२ संदर्भ गाथा - ७१ से ९९ तक
४ संदर्भ गाथा - १२२ / १२३ / १२४