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(१७) संहनन- ६ हाडों का आपस में जुड़ जाना संहनन है। उसके छः प्रकार है- (१) वज्रऋषभनाराच संहनन (२) ऋषभनाराच संहनन (३) नाराच संहनन (४) अर्द्धनाराच संहनन (५) कीलिका संहनन (६) एवं सेवार्त या छेदवृत्त संहनन।
१) वज्र का अर्थ है खीला, ऋषभ का अर्थ है वेष्टन, और नाराच का अर्थ है दोनों तरफ मर्कट बन्ध। मर्कट बन्ध से बन्धी हुई दो हड्डियों के ऊपर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो, और तीन को भेदने वाला हड्डी का खीला जिस संहनन में पाया जाय उसे वज्रऋषभनाराच संहनन कहते हैं।
२) दोनों तरफ हाडों का मर्कट बन्ध हो, तीसरे हाड का वेष्टन भी हो, लेकिन तीनों को भेदने वाला हाड का खीला न हो तो ऋषभनाराच संहनन है।
३) जिस रचना से दोनों तरफ मर्कटबन्ध हो लेकिन वेष्टन और खीला न हो उसे नाराच संहनन कहते
४) अर्धनाराच संहनन- जिस रचना में एक तरफ मर्कट बन्ध हो और दूसरी तरफ खीला हो उसे नाराच संहनन कहते हैं।
५) कीलिका संहनन- जिस रचना में मर्कट बन्ध और वेष्टन न हो किन्तु खीले से हड्डियाँ आपस में जुडी हुई हो वह कीलिका संहनन है।
६) सेवा संहनन- जिस रचना में मर्कट, बन्धन, वेष्टन, खीला न होकर यों ही हड्डियाँ आपस में जुडी हो वह सेवा संहनन है। देव और नारक असंहननी होते हैं। इत्यादि जिन जीवों में जो जो संहनन पाये जाते हैं उनका शास्त्रानुसारेण चिन्तन करें।
(१८) संस्थान- ६ शरीर के आकार को संस्थान कहते हैं। इसके छह भेद है
१) समचतुरस्र संस्थान- सम का अर्थ है कोण अर्थात् पलथी मारकर बैठने से जिस शरीर के चार कोण समान हो, अर्थात् आसन और कपाल का अन्तर, दोनों जानुओं का अन्तर, दक्षिण स्कन्ध और वामजानु का अन्तर तथा वाम स्कन्ध और दक्षिण जानु का अन्तर समान हो तो वह समचतुरस्र संस्थान है।
२) न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान- बड के वृक्ष को न्यग्रोध कहते है। उस के समान जिस शरीर में नाभि से उपर के अवयव पूर्ण हो किन्तु नाभि से नीचे अवयव हीन हो तो वह न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान है।
३) सादि संस्थान- जिस शरीर में नाभि से नीचे के अवयव पूर्ण और नाभि से ऊपर के अवयव हीन होते हैं उसे सादि संस्थान कहते हैं।
४) कब्ज संस्थान- जिस शरीर के हाथ, पैर, सिर, गर्दन आदि अवयव ठीक हों किन्त छाती, पीठ, पेट हीन हो उसे कुब्ज संस्थान कहते हैं।
५) वामन संस्थान- जिस शरीर में हाथ, पैर आदि अवयव हीन, छोटे हो और छाती पेट आदि पूर्ण हो उसे वामन संस्थान कहते है।
६) हुण्ड संस्थान- जिसके समस्त अवयव बेढंग हो- प्रमाण शून्य हो, उसे हुण्ड संस्थान कहते है। गर्भज पंचेन्द्रिय, तिर्यंच और मनुष्य उपरोक्त छहों संस्थान वाले होते हैं। देव समचतुरस्र संस्थान वाले
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संदर्भ गाथा - ५७/५८/५९/६०/६१,
२ संदर्भ गाथा - ६२/६३/५४