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________________ 37 प्रश्न.- योनियाँ तो चौरासी लाख मानी जाती हैं फिर यहाँ नौ ही क्यों बताई गई है? उत्तर.- चौरासी लाख योनियों का कथन विस्तार की अपेक्षा से किया गया है। पृथ्वीकाय आदि जिस जिस निकाय के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के तरतम भाव वाले जितने जितने उत्पत्तिस्थान है उस उस निकाय की उतनी ही योनियाँ चौरासी लाख योनि में गिनी गई है। यहां उन्हीं चौरासी लाख योनि के सचित्तादि संक्षिप्त योनि के अन्य प्रकार से भी तीन भेद है- १- कूर्मोन्नत योनि ( कछुए के पीठ की तरह उन्नत योनि) २- शंखावर्त योनि ( शंख की तरह आवर्तवाली योनि) ३- वंशीपत्र योनि ( मिले हुए बाँस के दो पत्र के आकारवाली योनि)। तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव इन ५४ उत्तम पुरुषों की माता की कूर्मोन्नत योनि होती है। चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न की शंखावर्त योनि होती है। शंखावर्त योनि में जीव आते हैं गर्भ रूप से उत्पन्न होते हैं, संचित होते है किन्तु उत्पन्न नहीं होते। वंशीपत्र योनि सामान्य पुरुषों की माता की होती है। (१५) वेद- वेद के तीन भेद है- स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। १) स्त्रीवेद- जिस कर्म के उदय से स्त्री को पुरुष के साथ भोग करने की इच्छा होती है वह स्त्रीवेद है। इस की कामाभिलाषा करीषाग्नि की तरह होती है। करीष सूखे गोबर को कहते हैं उसकी अग्नि जैसी जैसी जलाई जाय वैसी वैसी ही बढती जाती है, उसी प्रकार पुरुष के करस्पर्शादि व्यापार से स्त्री की अभिलाषा बढती है। २) पुरुषवेद- जिस कर्म के उदय से पुरुष को स्त्री के साथ भोग करने इच्छा होती है वह पुरुषवेद है। इसकी कामाभिलाषा तृणाग्नि की तरह है। तृण की अग्नि शीघ्र ही जलती है और शीघ्र ही बुझती है, उसी प्रकार पुरुष को अभिलाषा शीघ्र होती है और स्त्रीसेवन के बाद शीघ्र ही शान्त होती है। ३) नपुंसकवेद- जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ भोग करने की इच्छा होती है, वह नपुंसकवेद है। इस की कामाभिलाषा नगर के दाह के समान है। शहर में आग लगे तो बहुत दिनों तक नगर को जलाती है और उस आग को बुझाने में भी बहुत दिन लगते हैं। उसी प्रकार नपुंसकवेद के उदय से उत्पन्न हुई अभिलाषा चिरकाल तक निवृत्त नहीं होती और विषय सेवन से तृप्ति भी नहीं होती। नारक और सम्मूर्छिम जीवों को नपुंसकवेद होता है। देवों को नपुंसकवेद नहीं होता, शेष दो होते हैं। शेष सब अर्थात् गर्भज मनुष्यों तथा तिर्यंचों के तीनों वेद होते हैं। ये तीनों वेद द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार के है द्रव्य वेद अर्थात् उपर का चिह्न, और भाववेद अर्थात् अभिलाषा विशेष । किन जीवों के कितने वेद है उनका ग्रन्थानुसारेण चिन्तन करें। (१६) कायस्थिति- काय का अर्थ पर्याय है। पर्याय सामान्य- विशेष के भेद से दो प्रकार का है। जीव का जीवत्व रूप पर्याय सामान्य है और नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव रूप पर्याय विशेष पर्याय है। सामान्य अथवा विशेष पर्याय की अपेक्षा जीव का निरन्तर होना कायस्थिति है। यह स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट रूप से दो प्रकार की है। अथवा पृथ्वी आदि एक ही विवक्षित काय में एक ही जीव की मर मर कर निरन्तर पुनः पुनः उसी काय में उत्पत्ति कायस्थिति है। किन जीवों की कितनी कायस्थिति है उनका ग्रन्थानुसारेण चिन्तन करें। १ संदर्भ गाथा - ४९/५०, २ संदर्भ गाथा - ५२/५३/५४/५५/५६
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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