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________________ 40 (२४) कर्म बन्ध के मूल हेतु - ४ । कर्म बन्ध के मूल हेतु चार है - (१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) कषाय ( ४ ) और योग' । (२५) बन्ध हेतुओं के उत्तर भेद - ५७ । मिथ्यात्व - विपरीत श्रद्धानरूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते है इसके पाँच भेद है - (१) आभिग्रहिक (२) अनाभिग्रहिक (३) आभिनिवेशिक (४) सांशयिक (५) अनाभोगिक। १) तत्त्व की परीक्षा किये बिना ही पक्षपात पूर्वक एक सिद्धान्त का आग्रह करना और अन्य पक्ष का खण्डन करना आभिग्रहिक मिथ्यात्व है। २) गुण दोष की परीक्षा किये बिना ही सब पक्षों को बराबर समझना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है। ३) अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी उसकी स्थापना के लिए दुरभिनिवेश करना आभिनिवेशिक ४) इस स्वरूपवाला देव होगा या अन्य स्वरूप का ? इसी तरह गुरु और धर्म के विषय में संदेहशील बने रहा सांशयिक मिथ्यात्व है। ५) विचार शून्य एकेन्द्रियादि तथा विशेष ज्ञान विकल जीवों को जो मिथ्यात्व होता है वह अनाभोगिक अविरति के बारह भेद होते है । कषाय के नौ और सोलह, कुल पच्चीस भेद है। योग के पन्द्रह भेद। इस प्रकार सब मिलाकर बन्ध हेतुओं के उत्तर भेद सत्तावन होते हैं। अशाता वेदनीय का बन्ध मिथ्यात्व आदि चारों कारणों से होता है। नरक त्रिक आदि सोलह प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्वमात्र से होता है । तिर्यंच-त्रिक आदि पैतीस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व और अविरति से होता है। तीर्थंकर और आहारक द्विक को छोडकर शेष सब ज्ञानावरणादि पैंसठ प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, अविरति और कषाय इन तीन हेतुओं से होता है ' । इत्यादि ग्रन्थानुसोरण चिन्तन करें । (२३) कषाय- कष का अर्थ है जन्म-मरण रूप संसार, उसकी आय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं। अथवा कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ रूप आत्मा के परिणाम विशेष जो सम्यक्त्व, देशस्थिति, सर्वविरति और यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं, वे कषाय कहलाते हैं। इसके चार भेद हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रत्येक कषाय के चार भेद है (१) अनन्तानुबन्धी (२) अप्रत्याख्यानावरण ( ३ ) प्रत्याख्यानावरण ( ४ ) संज्वलन । १) अनन्तानुबन्धी- जिस कषाय के प्रभाव से जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है उस कषाय को अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। यह कषाय सम्यक्त्व का घात करता है एवं जीवन पर्यन्त रहता है। इस कषाय से जीव नरक गति योग्य कर्मों का बन्ध करता है। २) अप्रत्याखानावरण- जिस कषाय के उदय से देशविरति रूप अल्प सा भी प्रत्याख्यान नहीं होता उसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। इस कषाय के श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती यह कषाय एक वर्ष तक रहता है। और इससे तिर्यंचगति योग्य कर्मों का बन्ध करता है। संदर्भ गाथा - १२९ से १५२ तक १
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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