________________
35
आयुष्य बन्ध- नारकी के नैरयिक, भवनपति, व्यन्तर ज्योतिषी और वैमानिक देव अपनी अपनी आयु के छह माह शेष रहने परभव की आयु बांधते हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति काय, तीन विकलेन्द्रिय के जीव की सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की आयु होती है। इन में जो निरुपक्रम आयुवाले होते हैं वे अपनी अपनी आयु का तिसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं। सोपक्रम आयु वाले कभी अपने आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर, कभी अपनी आयु के तीसरे भाग का तीसरा भाग याने नवाँ भाग शेष रहने पर और कभी अपनी आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग यानी सत्ताईसवाँ भाग शेष रहने पर परभव की आयु बाँधते है। कभी अपनी आयु के सत्ताईसवें भाग का तीसरा भाग यानी इक्यासीवाँ भाग शेष रहने पर, कभी इक्यासीवें भाग का तीसरा भाग यानी २४३ वाँ भाग शेष रहने पर यावत् अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर परभव की आयु बांधते है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य संख्यात वर्ष की आयु वाले और असंख्यात वर्ण की आयुवाले होते हैं। असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य निरुपक्रम आयुवाले होते हैं। वे अपने आयु के छह मास शेष रहने पर परभव की आयु बांधते है। संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य निरुपक्रम और सोपक्रम दोनों प्रकार की आयु वाले होते हैं। पृथ्वीकाय की भवस्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त एवं उत्कृष्ट २२ हजार वर्ष की। अप्काय की उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्ष की। अग्नि की उत्कृष्ट स्थिति तीन अहोरात्र। वायु काय की तीन हजार वर्ष की। वनस्पति काय की दस हजार वर्ष की। द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति बारह वर्ष की। त्रीन्द्रिय की ४९ दिवस, चतुरिन्द्रिय की छह मास, नारकी जघन्य स्थिति १०,००० वर्ष, उत्कृष्ट ३३ सागरोपम, तिर्यंच पंचेन्द्रिय पल्योपम, मनुष्य ३ पल्योपम, देवता उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागरोपम एवं जघन्य १०,000 वर्ष। देव और नारकी को छोड शेष जीवों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त इत्यादि।
११- आगति- ४ नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव रूप से आगतियाँ चार प्रकार की है। उनका ग्रन्थ के अनुसार चिन्तन किया जाय।
१२- गति- ४ नारक, देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं मोक्ष गति ये पाँच गतियाँ है। उनका ग्रन्थानुसारेण चिन्तन करें।
१३- कुल- जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते है। वर्णादि के भेद एक ही योनि में उत्पन्न वाले विविध जीवों के समूह को कुल कहते हैं। इसकी संख्या एक कोटाकोटि सत्तानवें लाख पचास हजार है। पृथ्वीकाय की बारह लाख कुलकोटि। अप्काय की सात लाख कुलकोटि। तेउकाय की तीन लाख कुलकोटि । वायुकाय की सात लाख कुलकोटि। द्वीन्द्रिय की सात लाख कुलकोटि। त्रीन्द्रिय की आठ लाक कुलकोटि। चतुरिन्द्रिय की नौ लाख कुलकोटि। वनस्पति की अट्ठावीस लाख कुलकोटि। जलचर की साढे बारह लाख कुलकोटि। पक्षियों की बारह लाख कुलकोटि। चतुष्पदों की दस लाख कुलकोटि। उर:परिसॉं की नौ लाख कुलकोटि। भुजपरिसरों की नौ लाख कुलकोटि। देवों की २६ लाख कुलकोटि। नारकों की पच्चीस लाख कुलकोटि। मनुष्यों की बारह लाख कुलकोटि होती है।
(१४) योनि- पूर्वभव समाप्त होने पर संसारी जीव नया भव धारण करते है। इसके लिए उन्हें जन्म
१ ३
संदर्भ गाथा-३४/३५, संदर्भ गाथा-३६/३७
२ संदर्भ गाथा-३६ ४ संदर्भ गाथा-४३/४४/४५/४६