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है उसे शरीर पर्याप्ति कहते हैं।
___३) जिस शक्ति के द्वारा जीव धातुओं के रूप में परिणत आहार को इन्द्रियों के रूप में परिणत करता है उसे इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं।
४) जिस शक्ति के द्वारा जीव श्वासोच्छ्रास योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उनको श्वासोच्छ्रास के रूप में बदल कर तथा अवलम्बन कर देता है उसे श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं।
५) जिस शक्ति के द्वारा जीव भाषायोग्य पुद्गलों को लेकर उनको भाषा के रूप में बदल देता है उसे भाषा पर्याप्ति कहते है।
६) जिस शक्ति के द्वारा जीव मनोयोग्य पुद्गलों को लेकर उनको मन के रूप में बदल देता है उसे मनःपर्याप्ति कहते हैं।
इन छः पर्याप्तियों में से प्रथम चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीव को, पाँच पर्याप्तियां विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञि- पंचेन्द्रिय को, और छह पर्याप्तियाँ संज्ञि पंचेन्द्रिय को होती है।
पर्याप्त जीवों के दो भेद हैं-१- लब्धिपर्याप्त और २- करणपर्याप्त। १) जो जीव अपनी अपनी पर्याप्तियों के पूर्ण कर के मरते हैं, पहले नहीं वे लब्धि पर्याप्त है।
२) करण का अर्थ है इन्द्रिय। जिन जीवों ने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर ली है- अर्थात् आहार, शरीर और इन्द्रिय तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली है वे करण पर्याप्त है, क्यों कि आहार पर्याप्ति और शरीर पर्याप्ति पूर्ण किये बिना इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं हो सकती इसलिए तीनों पर्याप्तियाँ ली गई है।
(९) प्राण- १० जिन से प्राणी जीवित रहें उन्हें प्राण कहते हैं। वे दस है- (१) स्पर्शनेन्द्रियबल प्राण (२) रसनेन्द्रियबल प्राण (३) घ्राणेन्द्रियबल प्राण (४) चक्षुरिन्द्रियबल प्राण (५) श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण (६) कायबल प्राण (७) वचनबल प्राण (८) मनबल प्राण (९) श्वासोच्छासबल प्राण (१०) आयुष्यबल प्राण। एकेन्द्रिय जीवों में चार प्राण होते हैं। स्पर्शनेन्द्रियबल प्राण, कायबल प्राण, श्वासोच्छ्वासबल प्राण और
आयुष्यबल प्राण। द्वि इन्द्रिय में छ प्राण होते हैं। चार पूर्वोक्त तथा रसनेन्द्रिय और वचनबल प्राण। त्रि इन्द्रिय में सात प्राण होते हैं। छः पूर्वोक्त और घ्राणेन्द्रियबल प्राण। चतुरिन्द्रिय में आठ प्राण होते हैं- पूर्वोक्त सात और चक्षुरिन्द्रियबल प्राण। असंज्ञी पंचेन्द्रिय में नौ प्राण होते हैं- पूर्वोक्त आठ और श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण। संज्ञी पंचेन्द्रिय में दस प्राण होते हैं। पूर्वोक्त नौ और मनबल प्राण।
(१०) आयु- ४ जिस कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीता है और क्षय से मरता है, उसे आयु कहते हैं। इसके चार प्रकार है- मनुष्यायु, तिर्यंचायु, देवायु तथा नरकायु। आयु मुख्यतः दो प्रकार की है- अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय।
बाह्य निमित्त से जो आयु कम हो जाती है उसको अपवर्तनीय या अपवर्त्य आयु कहते हैं। जैसे जल, शस्त्र चोट, विष प्रयोग आदि बाह्य निमित्त व्यक्ति मरता है वह अपवर्त्य आयु है। जो आयु किसी भी कारण से कम न हो सके अर्थात् जितने काल की आयु बान्धी गई है उतने काल तक भोगी जावे, उस आयु को अनपवर्त्य आयु कहते हैं। इन आयु को हम जघन्य और उत्कृष्ट ऐसे दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं।
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संदर्भ गाथा-३० संदर्भ गाथा-३२/३३