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________________ 31 स्वामी- औदारिक शरीर के स्वामी मनुष्य और तिर्यंच है। नैरयिक और देव वैक्रिय शरीर के स्वामी है। चौदह पूर्वधारी लब्धि मुनिराज आहारक शरीर के स्वामी होते है । तैजस और कार्मण शरीर के स्वामी चारों ही गति के जीव होते हैं। संस्थान - औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर में छहों संस्थान पाते हैं। वैक्रिय में समचतुरस्र और हुंडक ये दो संस्थान पाये जाते हैं। अवगाहना- औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट एक हजार योजन से कुछ अधिक,पद्मद्रहस्थित बृहत् कमल की अपेक्षा । वैक्रिय शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग; उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक, उत्तर वैक्रिय की अपेक्षा । आहारक शरीर की अवगाहना जघन्य - कुछ कम एक हाथ (मुंड हाथ ) की, उत्कृष्ट एक हाथ की। तेजस - कार्मण शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट लोकान्त तक अर्थात् सम्पूर्ण लोक प्रमाण। विषय - औदारिक शरीर का विषय रुचक द्वीप तक, वैक्रिय शरीर का विषय असंख्यात द्वीप समुद्र तक, आहारक शरीर का विषय ढाई द्वीप तक, तथा तैजस कार्मण का विषय ( केवली समुद्धात की अपेक्षा ) चौदह राजलोक प्रमाण है। औदारिक शरीर में वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर की भजना होती है अर्थात् औदारिक शरीर में वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर कभी होता है और कभी नहीं होता । तथा औदारिक शरीर के साथ आहारक शरीर भी कभी होता है और कभी नहीं होता। औदारिक शरीर के साथ तैजस-कार्मण शरीर नियमपूर्वक होते हैं। वैक्रिय के साथ आहारक शरीर नहीं होता, किन्तु तैजस और कार्मण नियमपूर्वक होता ही है। आहारक के साथ वैक्रिय शरीर नहीं होता। तैजस के साथ कार्मण निश्चित होता है। किन्तु इनके साथ औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर कभी होता है और कभी नहीं भी होता है। स्थिति- औदारिक शरीर की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्योपम की( युगलिक मनुष्य की अपेक्षा)। वैक्रिय शरीर की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की । आहारक की जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की । तैजस कार्मण शरीर की स्थिति के दो भंग है- अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित (अनादि सान्त) | अल्पबहुत्व - सबसे थोडे आहारक शरीर; द्रव्यार्थ की अपेक्षा, उससे वैक्रिय शरीर असंख्यात गुणा, उससे औदारिक शरीर अनन्त गुणा, उससे वैक्रिय शरीर; प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा, उससे औदारिक शरीर; प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा, उससे तैजस- कार्मण शरीर अनन्त गुणा द्रव्यार्थ की अपेक्षा से तुल्य । उससे तैजस शरीर प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा, उससे कार्मण शरीर प्रदेश की अपेक्षा अनन्त गुणा । प्रयोजन - औदारिक शरीर का प्रयोजन - तीर्थंकर, गणधर के शरीर की अपेक्षा औदारिक शरीर प्रधान कहा गया है। तीर्थंकर, गणधर के शरीर की अपेक्षा दूसरे शरीर अनन्तगुण हीन होते हैं। इस औदारिक से तीर्थंकर, गणधर एवं अन्य चरम शरीरी की आठ कर्म का क्षय कर सिद्धि प्राप्त करते हैं। वैक्रिय शरीर का प्रयोजन अच्छे बूरे रूप बनाना है। विशिष्ट पदार्थ के बोध, संशय निवारण आदि प्रयोजन से विशिष्ट आहारक लब्धिधारी चौदह पूर्वधर मुनि केवली भगवान के पास भेजने के लिए आहारक शरीर बनाते हैं जो एक हाथ प्रमाण होता है। भगवान के पास भेजा हुआ आहारक शरीर जहाँ केवली भगवान विराजतें हैं वहाँ जाता है और केवली भगवान की समीप प्रयोजन सिद्ध कर वापस आता है और मुनिराज के शरीर में प्रवेश करता है।
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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