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________________ आहारक शरीर के द्वारा मुनिराज अपना समाधान प्राप्त कर लेते हैं। तैजस शरीर का प्रयोजन- आहार पचाना है। तैजसलब्धि का प्रयोग भी तैजस शरीर के द्वारा ही होता है। कार्मण शरीर आठ कर्मों का खजाना है। यह शरीर जीव को चारों गतियों में परिभ्रमण करवाता है। 32 अन्तर- औदारिक शरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम। वैक्रिय का जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्त काल का । आहारक शरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्गल परावर्त का। तैजस कार्मण शरीर का अन्तर नहीं होता। दोनों शरीर संसारी जीव के सदा साथ में रहते हैं । इस के बाद साधक लेश्या का विचार करें। (६) लेश्या - लेश्या के द्रव्य और भाव इस प्रकार दो भेद है । द्रव्य लेश्या, पुद्गल विशेषात्मक है। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन मत है । (१) कर्म वर्गणा निष्पन्न, (२) कर्मनिष्यन्द और (३)योग परिणाम। प्रथम मत के अनुसार लेश्या द्रव्य, कर्म-वर्गणा से बने हुएँ है, फिर भी वे आठ कर्म से भिन्न है, जैसे कि कार्मण शरीर। दूसरे मत के अनुसार लेश्या द्रव्य, कर्मनिष्यन्द रूप ( बध्यमान कर्म प्रवाह रूप) है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्यन्द न होने से लेश्या के अभाव की उपपत्ति हो जाती है। प्रज्ञापना के टीकाकार आ. श्री मलयगिरि सू. लेश्या - द्रव्य को योगवर्गणा - अन्तर्गत स्वतंत्र द्रव्य मानते भावलेश्या आत्मा का परिणाम विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुतः भावलेश्या असंख्य प्रकार की है। फिर भी संक्षेप में उसके छह विभाग किये हैं- कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल । इन छह भेदों का स्वरूप समझने के लिए शास्त्र में इस प्रकार का दृष्टान्त हैं १ कृष्ण लेश्यी- कोई छह पुरुष जम्बूफल (जामुन) खाने की इच्छा करते हुए चले जा रहे थे। इतने में जम्बू वृक्ष को देख उन से एक पुरुष बोला- 'लीजिए वृक्ष तो आ गया। अब फलों के लिए ऊपर चढने की अपेक्षा फलों से लदी हुई बडी बडी शाखावाले इस वृक्ष को काट गिराना ही अच्छा है'। २- नील लेश्यी यह सुनकर दूसरे ने कहा- 'वृक्ष काटने से क्या लाभ ? केवल शाखा काट दो' । ३ - कापोत लेश्यी तीसरे पुरुष ने कहा- यह भी ठीक नहीं, छोटी छोटी शाखाओं के काट लेने से भी तो काम निकाला जा सकता है'। ४- तेजोलेश्यी चौथे ने कहा- 'शाखाएँ भी क्यों काटना ? फलों के गुच्छों को तोड लीजिए' । ५- पद्म लेश्यी पांचवाँ बोला- 'गुच्छों से क्या प्रयोजन ? उनमें से कुछ फलों को ही ले लेना अच्छा है'। ६- शुक्ल लेश्यी अन्त में छठे पुरुष ने कहा- 'ये सब विचार निरर्थक हैं। क्यों कि हम लोग जिन्हें चाहते हैं फल तो नीचे भी गिरे हुएँ हैं। क्या इन्हीं से हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता ? ' । इस दृष्टान्त से लेश्या का वास्तविक स्वरूप समझ में आता है। इस दृष्टान्त में पूर्व पूर्व के पुरुष के परिणामों की अपेक्षा १ लेश्याकोश । २ प्रज्ञापनासूत्र लेश्यापद टीका ।
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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