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मनःपर्यायज्ञानी अथवा अनुत्तर विमानवासी देव भगवान को शब्द द्वारा न पूछकर मन से ही पूछता है उस समय केवली भगवान भी उस प्रश्न का उत्तर मन से ही देते हैं। प्रश्न करनेवाला मनःपर्यायज्ञानी भगवान द्वारा मन में सोचे हए उत्तर को प्रत्यक्ष जान लेता है और अवधिज्ञानी उस रूप में परिणत हए मनोवर्गणा के परमाणुओं को देखकर मालूम कर लेता है। उपदेश देने के लिए केवली भगवान वचन का उपयोग करते हैं। हलन चलन आदि क्रियाओं में काययोग का उपयोग करते हैं।
१४) अयोगी केवली गुणस्थान- जो केवली भगवान योगों से रहित हैं वे अयोगी कहे जाते हैं। उनके स्वरूप विशेष को अयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं।
तीनों प्रकार के योग का निरोध करने से अयोगी अवस्था प्राप्त होती है। केवली भगवान सयोगी अवस्था में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ कम एक करोड पूर्व तक रहते हैं। इसके बाद जिस केवली के आयुकर्म की स्थिति और प्रदेश कम रह जाते हैं तथा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति और प्रदेश आयुकर्म की अपेक्षा अधिक बच जाते हैं वे केवलीसमुद्धात करते हैं। केवलीसमुद्धात के द्वारा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति आयु के बराबर कर लेते हैं। जिन केवलियों के वेदनीय आदि उक्त तीन कर्म की स्थिति तथा परमाणुओं में आयुकर्म के बराबर होते हैं वे समुद्धात नहीं करते।
सभी केवलज्ञानी सयोगी अवस्था के अन्त में एक ऐसे ध्यान के लिए योगों का निरोध करते हैं जो परम निर्जरा का कारण, लेश्या से रहित तथा अत्यन्त स्थिरता रूप होता है। योग के निरोध का क्रम इस प्रकार है- पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग तथा बादर वचनयोग को रोकते हैं। इसके बाद सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोकते हैं और फिर उसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोग को रोकते हैं। अन्त में केवली भगवान सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति शुक्लध्यान के बल से सूक्ष्म काययोग को भी रोकते हैं। इस प्रकार सब योगों का निरोध हो जाने से केवलज्ञानी भगवान अयोगी बन जाते हैं। और सूक्ष्मक्रियाअनिवृत्ति शुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर की पोले भाग को अर्थात् मुख, उदर आदि को आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं। इसके बाद अयोगी केवली भगवान समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाती शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और मध्यम रीति से पाँच ह्रस्व स्वर अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय का शैलेशीकरण करते हैं। सुमेरु पर्वत के समान निश्चल अवस्था अथवा सर्व संवर रूप योगनिरोध अवस्था को शैलेशी कहते हैं। शैलेशी अवस्था में वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म की गुणश्रेणी से और आयुकर्म की यथास्थित श्रेणी से निर्जरा करना शैलेशीकरण है। शैलेशीकरण को प्राप्त करके अयोगी केवलज्ञानी उसके अन्तिम समय में वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार भवोपग्राही (जीव को संसार में बान्ध कर रखनेवाले) कर्मों को सर्वथा क्षय करके देते हैं। उस समय उनके आत्म प्रदेश इतने संकुचित हो जाते हैं कि वे उनके शरीर के २/ ३ भाग में समा जाते हैं। उक्त कर्मों का क्षय होते ही वे एक समय में ऋजु गति से ऊपर की ओर सिद्धिक्षेत्र में चले जाते हैं।
सिद्धिक्षेत्र लोक के अग्रभाग पर स्थित है। इसके आगे किसी आत्मा या पद्धल की गति नहीं होती। इसका कारण यह है कि आत्मा को या पुद्गल को गति करने में धर्मास्तिकाय की अपेक्षा होती है और लोक के आगे इसका अभाव है। कर्ममल के हट जाने से शुद्ध आत्मा की ऊर्ध्वगति इस प्रकार होती है जिस प्रकार कि मिट्टी के लोपों से युक्त तुम्बा लेपों के हट जाने से जल पर चला जाता है।
१ संदर्भ-गाथा - १५ वृत्ति