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________________ 22 क्षपक श्रेणी के बिना कोई जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। ग्यारहवें गुणस्थान में उपशम श्रेणीवाला ही जाता है इसलिए वह अवश्य गिरता है। एक जन्म में दो बार से अधिक उपशम श्रेणी नहीं की जा सकती। क्षपक श्रेणी तो एक ही बार होती है। जिसने एक बार उपशम श्रेणी की है वह उसी जन्म में क्षपक श्रेणी द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है परन्तु जो बार उपशम श्रेणी कर चुका है वह फिर उसी जन्म एक ही श्रेणी कर सकता है। अत एव जिसने एक बार उपशम श्रेणी की है वह फिर उसी जन्म में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकता। उपशम श्रेणी के आरम्भ का क्रम इस प्रकार है- चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान जीव पहले चार अनन्तानुबन्धी कषायों का उपशम करता है। इसके बाद अन्तर्मुहूर्त में एक साथ दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों का उपशम करता है। इसके बाद वह जीव छठे तथा सातवें गुणस्थान में होकर नवें गुणस्थान को प्राप्त करता है और नवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों का उपशम शुरु करता है। सब से पहले वह नपुंसक वेद का उपशम करता है। इसके बाद स्त्रीवेद का उपशम करता है। हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरुषवेद, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया इन सब प्रकृतियों का उपशम नवें गुणस्थान के अन्त तक करता है। संज्वलन लोभ को दसवें गुणस्थान में उपशान्त करता है। १२- क्षीणकषाय छद्मस्थ वीतराग गुणस्थान- जिस जीव ने मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर दिया है किन्तु शेष छद्म ( घाती कर्म) अभी विद्यमान हैं उसे क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं और उसके स्वरूप को क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। इसे क्षपक श्रेणीवाले जीव ही प्राप्त करते हैं। क्षपक श्रेणी का क्रम संक्षेप में इस प्रकार है- जो जीव क्षपक श्रेणी करनेवाला होता है वह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक के किसी भी गुणस्थान में सब से पहले अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का एक साथ क्षय करता है। इसके बाद अनन्तानुबन्धी कषाय के अवशिष्ट अनन्तवें भाग को मिथ्यात्व में डाल कर दोनों का एक साथ क्षय करता इसके बाद मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय का क्षय करता है। आठवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ के क्षय का प्रारंभ करता है। इन आठ प्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने से पहले ही नवें गुणस्थान को प्रारंभ कर देता है और उसी समय नीचे लिखी १६ प्रकृतियों का क्षय करता है। (१) निद्रानिद्रा (२) प्रचलाप्रचला (३) स्त्यानगृद्धि (४) नरकगति (५) नरकानुपूर्वी (६) तिर्यंचगति (७) तिर्यंचानुपूर्वी (८) एकेन्द्रियजाति नामकर्म (९) द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म (१०) त्रीन्द्रियजाति नामकर्म (११) चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म (१२) आतप (१३) उद्योत (१४) स्थावर (१५) सूक्ष्म (१६) साधारण । इनके बाद अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ के बाकी बचे हुए भाग का क्षय करता है। तदनन्तर क्रम से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य आदि छ, पुरुषवेद, संज्वलन लोभ का दसवें गुणस्थान में क्षय करता है। १३) सयोगी केवली गुणस्थान- जिन्होनें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय चार घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया है उनको सयोगी केवली कहते हैं और उनके स्वरूप विशेष को सयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं । योग का अर्थ है- आत्मा की प्रवृत्ति या व्यापार । इसके तीन भेद हैं- मनोयोग, वचनयोग और काययोग। किसी को मन से उत्तर देने में केवली भगवान को मन का उपयोग करना पडता है। जिस समय कोई
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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