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नहीं करते। छठे गुणस्थान से लेकर आगे किसी गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय नहीं रहता इसीलिए यहाँ सर्वसावध व्यापार का सर्वथा त्याग होता है।
७) अप्रमत्त संयत गुणस्थान- जो मुनि निद्रा, विषय, कषाय, विकथा आदि प्रमादों का सेवन नहीं करते वे अप्रमत्त संयत है और उनका स्वरूप विशेष अप्रमत्त संयत गुणस्थान है। प्रमाद सेवन से ही आत्मा उत्तरोत्तर शुद्ध होने लगता है। सातवें गुणस्थान से लेकर आगे सभी गुणस्थानों में वर्तमान मुनि प्रमाद का सेवन नहीं करते। वे अपने स्वरूप में सदा जागृत रहते हैं।
८) निवृत्ति बादर गुणस्थान- जिस जीव के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये चारों कषाय निवृत्त हो गये हैं उसके स्वरूप विशेष को निवृत्ति (नियट्टी) बादर गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान से दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं- उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणीवाला जीव मोहनीय की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता हैं और क्षपक श्रेणीवाला जीव दसवें से सीधा बारहवें गुणस्थान में जाकर अप्रतिपाती हो जाता है।
जो जीव आठवें गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं, जो प्राप्त कर रहे हैं और जो प्राप्त करेंगे उन सभी जीवों के अध्यवसाय स्थानों (परिणाम भेदों) की संख्या असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के तुल्य है। इस प्रकार दूसरे तीसरे आदि प्रत्येक समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के अध्यवसाय भी गणना में असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर ही हैं।
यद्यपि आठवें गुणस्थान में रहनेवाले तीनों कालों के जीव अनन्त है तथापि उनके अध्यवसाय असंख्यात ही होते हैं। आठवें गुणस्थान के समय जीव पाँच अपूर्व वस्तुओं का विधान करता है। जैसेस्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्व स्थितिबन्ध। स्थितिघात आदि पदार्थों का अपूर्व विधान होने से इस आठवें गणस्थान का दूसरा नाम अपूर्वकरण गुणस्थान भी प्रसिद्ध है।
९) अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान- संज्वलन क्रोध, मान और माया कषाय से जहाँ निवृत्ति न हुई हो ऐसी अवस्था विशेष को अनिवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। नवें गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव दो प्रकार के होते हैं- एक उपशमक और दूसरा क्षपक। जो चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करते हैं वे उपशमक कहलाते हैं। जो चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय करते हैं वे क्षपक कहलाते हैं।
१०) सूक्ष्म संपराय गुणस्थान- इस गुणस्थान में सम्पराय अर्थात् लोभ कषाय से सूक्ष्म खण्डों का ही उदय रहता है। इस गुणस्थान के जीव भी उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के होते हैं। संज्वलन लोभकषाय के सिवाय बाकी कषायों का उपशम या क्षय तो पहले ही हो जाता है। इसलिए दसवें गुणस्थान में जीव संज्वलन लोभ का उपशम या क्षय करता है। उपशम करनेवाला जीव उपशमक तथा क्षय करनेवाला जीव क्षपक कहलाता है।
११) उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान- जिनके कषाय उपशान्त हुए हैं, जिन को राग अर्थात् माया और लोभ का भी बिलकुल उदय नहीं है और जिनको छद्म आवरण भूत घातीकर्म लगे हुए हैं वे जीव उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ कहलाते है और उनके स्वरूप को उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान कहते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मानी गई है।