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अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपशान्ताद्धा में जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर और पूर्णानन्द हो जाता है। जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छ आवलिकाएँ बाकी रहने पर किसी किसी औपशमिक सम्यक्त्ववाले जीव के चढते परिणामों में विघ्न पड जाता है अर्थात् उसकी शान्ति भंग हो जाती है। उस समय अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने से जीव सम्यक्त्व परिणाम को छोडकर मिथ्यात्व की ओर झुक जाता है। जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता अर्थात् जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छ आवलिकाओं तक सास्वादन भाव का अनुभव करता है। उस समय जीव सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता हैं। औपशमिक सम्यक्त्ववाला जीव ही सास्वादन सम्यग्दृष्टि हो सकता है दूसरा नहीं।
३) सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान-मिश्रमोहनीय के उदय से जब जीव की दृष्टि कुछ सम्यग्(शुद्ध) और कुछ मिथ्या (अशुद्ध) रहती है उसे सम्यग्-मिथ्यादृष्टि कहा जाता है और जीव की इस अवस्था को सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न रहने से आत्मा में शुद्धता एवं मिथ्यात्व मोहनीय का उदय रहने से अशुद्धता रहती है। जैसे गुड मिले हुए दही का स्वाद कुछ मीठा ओर कुछ खट्टा रहता है। इसी प्रकार इस अवस्था में जीव की श्रद्धा कुछ सच्ची तथा कुछ मिथ्या होती है। उस समय जीव किसी बात पर दृढ होकर विश्वास नहीं करता। इस गुणस्थान के समय बुद्धि में दुर्बलता सी आ जाती है। इस कारण से जीव सर्वज्ञ के द्वारा कहे गये तत्त्वों पर न तो एकान्त रुचि रखता है और न एकान्त अरुचि। जिस प्रकार नारिकेल द्वीप निवासी पुरुष ओदन(भात) के विषय में न रुचि रखते हैं न अरुचि, जिस द्वीप में प्रधानतया नारियल पैदा होते हैं, वहाँ के निवासियों ने चावल आदि अन्न न तो देखा है और न सुना है। इससे पहले बिना देखे और बिना सुने अन्न को देखकर वे न तो रुचि करते हैं
और न अरुचि। किन्तु समभाव रखते हैं इसी प्रकार सम्यग-मिथ्यादृष्टि जीव भी सर्वज्ञ कथित मार्ग पर प्रीति या अप्रीति कुछ न कर के समभाव रखता है। इस प्रकार की स्थिति अन्तमुहूर्त की रहती है। इसके बाद सम्यक्त्व या मिथ्यात्व इन दोनों में से कोई प्रबल हो जाता है, अत एव तीसरे गणस्थान की स्थिति अन्तर्महर्त मानी गई है।
४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- सावध व्यापारों को छोड देना अर्थात् पापजन्य व्यापारों से अलग हो जाना विरति है। चारित्र और व्रत विरति का नाम है। जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार के व्रत को धारण नहीं कर सकता वह जीव अविरत सम्यग्दृष्टि है और उसका स्वरूप विशेष अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान है। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव व्रत नियमादि को यथावत् जानते हुए भी स्वीकार तथा पालन नहीं कर सकते क्यों कि उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय चारित्र के ग्रहण तथा पालन को रोकता है। अविरत सम्यग्दृष्टि कोई जीव औपशमिक सम्यक्त्व वाले होते हैं और कोई क्षायिक सम्यक्त्व वाले होते हैं।
५) देशविरति गुणस्थान- प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जो जीव पापजनक क्रियाओं से सर्वथा निवृत्त न हो कर एकदेश से निवृत्त होते हैं वे देशविरत या श्रावक कहलाते हैं। ऐसे जीवों के स्वरूप को देशविरत गुणस्थान कहते हैं।
६) प्रमत्त संयत गुणस्थान- जो जीव पापजनक व्यापारों से सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं वे संयत(मुनि) है। संयत भी जब तक प्रमाद को सेवन करते हैं तब तक प्रमत्त संयत कहलाते हैं। और उनका स्वरूप विशेष प्रमत्त संयत गुणस्थान है। संयती को सावध व्यापार का सर्वथा त्याग होता है। वे संवासानुमति का भी सेवन