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के अन्दर करके ग्रन्थिदेश को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु उसे भेद नहीं सकते। भव्य जीव जिस परिणाम से राग-द्वेष की दुर्भेद ग्रन्थि को तोडकर लांघ जाता है, उस परिणाम को शास्त्र में अपूर्वकरण कहते हैं। इस प्रकार का परिणाम जीव को बार बार नहीं आता, कदाचित् ही आता है इसीलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण तो अभव्यों को भी अनन्त बार आता है किन्तु अपूर्वकरण तो भव्य जीवों को भी अधिक बार नहीं आता।
___ अपूर्वकरण द्वारा राग-द्वेष की गांठ टूटने पर जीव के परिणाम अधिक शुद्ध हो जाते हैं, उस समय अनिवृत्तिकरण होता है। इस परिणाम को प्राप्त करने पर जीव सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना नहीं लौटता। इसीलिए इसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। उस समय जीव की शक्ति और बढ़ जाती है। अनिवृत्तिकरण की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसका एक भाग शेष रहने पर अन्तरकरण की क्रिया शुद्ध होती है अर्थात् अ के अन्त समय में मिथ्यात्व मोहनीय के कर्म दलिकों को आगे पीछे कर दिया जाता है कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अन्त तक उदय में आनेवाले कर्म दलिकों के साथ कर दिया जाता है। और कुछ के अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद उदय में आनेवाले कर्मदलिकों के साथ कर दिया जाता है। इससे अनिवृत्तिकरण के बाद का एक मुहूर्त प्रमाण काल ऐसा हो जाता है कि जिसमें मिथ्यात्व मोहनीय का कोई कर्मदलिक नहीं रहता। अत एव जिसका अबाधाकाल पूरा हो चूका है ऐसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दो भाग हो जाते हैं। एक विभाग वह जो अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदय में रहता है और दूसरा वह जो अनिवृत्तिकरण के बाद एक मुहूर्त बीतने पर उदय में आता है। इनमें से पहले विभाग को मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति और दूसरे को मिथ्यात्व की द्वितीया स्थिति कहते हैं। अन्तरकरण क्रिया के प्रारम्भ होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्त तक तो मिथ्यात्व का उदय रहता है पीछे नहीं रहता। अनिवृत्तिकरण बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है। औपशमिक सम्यक्त्व के प्राप्त होते ही जीव को स्पष्ट या असंदिग्ध प्रतीति होने लगती है, जैसे जन्मान्ध पुरुष को नेत्र मिलने पर मिथ्यात्व रूप महान रोग हट जाने से जीव को ऐसा आनन्द आता है जैसा किसी पुराने और भयंकर रोगी को स्वस्थ हो जाने पर होता है। उस समय तत्त्वों पर श्रद्धा दृढ हो जाती है।
औपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है, क्योंकि इसके बाद मिथ्यात्व मोहनीय के वे पुद्गल जिन्हें अन्तरकरण के समय अन्तर्मुहूर्त के बाद उदय होनेवाले बताया है, वे उदय में आ जाते हैं या क्षयोपशम रूप में परिणत कर दिये जाते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व के काल को उपशान्ताद्धा कहते है। अर्थात् उपशान्ताद्धा के पूर्वसमय में जीव विशुद्धपरिणाम से उस मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है जो औपशमिक सम्यक्त्व के बाद उदय में आनेवाला होता है। वह पहला भाग शुद्ध, दूसरा भाग अर्द्धशुद्ध और तीसरा अशुद्ध रह जाता है। इसी द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्व मोहनीय के तीन पुञ्जों में से एक पुंज इतना शुद्ध हो जाता है कि उस में सम्यक्त्वघातक रस नहीं रहता। जिस प्रकार कोद्रव धान्य को औषधियों से साफ करने से वह इतना शुद्ध हो जाता है कि खानेवाले को बिलकुल नशा नहीं आता। दूसरा पुंज आधा शुद्ध और तीसरा अशुद्ध ही रह जाता है।
औपशमिक सम्यक्त्व पूर्ण होने पर जीव के परिणामानुसार उक्त तीन पुंजो में से कोई एक उदय में आता है। शुद्ध पुंज के उदय से सम्यक्त्व का घात नहीं होता अतः उस समय प्रकट होनेवालों सम्यक्त्व को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। जीव के परिणाम अर्द्धविशुद्ध रहने पर दूसरे पुंज का उदय होता है और जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है। परिणामों के अशुद्ध होने पर अशुद्ध पुंज का उदय होता है और उस समय जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है।