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________________ 18 प्रश्न- मिथ्यात्वी जीव के स्वरूपविशेष को गुणस्थान कैसे कह सकते हैं? क्यों कि उसकी दृष्टि मिथ्या (अयथार्थ) है। तब उसका स्वरूप- विशेष भी विकृत अर्थात् दोषात्मक हो जाता है। उत्तर- यद्यपि मिथ्यात्वी की दृष्टि सर्वथा यथार्थ नहीं होती फिर भी वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है। क्योंकि मिथ्यात्वी जीव भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि रूप से जानता तथा मानता है। इसीलिए उसके स्वरूपविशेष को गुणस्थान कहा जाता है। जिस प्रकार सघन बादलों का आवरण होने पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा नहीं छिपती किन्तु कुछ न कुछ खुली रहती है जिससे कि दिनरात का विभाग किया जा सके। इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रबल उदय होने पर भी जीव का दृष्टि गुण सर्वथा आवृत्त नहीं होता। अत एव किसी न किसी अंश में मिथ्यात्वी की दृष्टि भी यथार्थ होती है। प्रश्न- जब मिथ्यात्वी की दृष्टि किसी भी अंश में यथार्थ हो सकती है, तब उसे सम्यग् दृष्टि कहने या मानने में क्या दोष है ? उत्तर - एक अंश मात्र की यथार्थ प्रतीति होने मात्र से जीव सम्यग् दृष्टि नहीं कहा जाता, क्यों कि शास्त्र में ऐसा कहा गया है कि- जो जीव सर्वज्ञ के कहे हुए बारह अंगों पर श्रद्धा रखता हैं परन्तु उन अंगों के किसी एक अक्षर पर विश्वास नहीं करता, वह भी मिथ्यादृष्टि ही है, जैसे जमालि । मिथ्यावादी की अपेक्षा सम्यक्त्व जीव में यह विशेषता है कि सर्वज्ञ के कथन पर सम्यक्त्वी का विश्वास अखंडित रहता है, किन्तु मिथ्यात्वी का नहीं रहता। २) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान : जो जीव औपशमिक सम्यक्त्ववाला है परन्तु अनन्तानुबन्धि कषाय के उदय से सम्यक्त्व को छोडकर मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है, वह जीव जब तक मिथ्यात्व प्राप्त नहीं करता तब तक सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इसकी स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छ आवलिका है। इस गुणस्थान में यद्यपि जीव का झुकाव मिथ्यात्व की ओर होता है तथापि जिस प्रकार खीर खाकर उसका वमन करनेवाले मनुष्य को खीर का विलक्षण स्वाद अनुभव में आता है इसी प्रकार सम्यक्त्व से गिर कर मिथ्यात्व की ओर झुके हुए जीव को भी कुछ काल के लिए सम्यक्त्व गुण का आस्वाद अनुभव में आता है। अत एव इस गुण स्थान को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व - अनन्तानुबन्धि चार कषाय और दर्शन मोहनीय के उपशम से प्रकट होनेवाला तत्त्वरुचिरूप आत्मपरिणाम औपशमिक सम्यक्त्व है। इसके दो भेद है- ग्रन्थिभेद जन्य और उपशमश्रेणी भावी । ग्रन्थि भेदजन्य औपशमिक सम्यक्त्व अनादि मिथ्यात्वी भव्य जीवों को होता है। इसके प्राप्त होने की प्रक्रिया इस प्रकार है। जीव अनादिकाल से संसार मे घूम रहा है और तरह तरह के दुःख उठा रहा है। जिस प्रकार पर्वतीय नदी में पड़ा हुआ पत्थर लुढकते लुढकते इधर उधर टक्कर खाता हुआ गोल और चिकना बन जाता है। इसी प्रकार जीव भी अनन्तकाल से दुःख सहते सहते कोमल और शुद्ध परिणामी बन जाता है। परिणाम शुद्धि के कारण जीव आयुकर्म से अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति को पल्योपम की असंख्यातवां भाग कम एक कोडा कोडी सागरोपम जितनी कर देता है। इसी परिणाम को शास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरणवाला जीव राग-द्वेष की मजबूत गाँठ के पास तक पहुँच जाता है किन्तु उसे भेद नहीं सकता। इसी को ग्रन्थिदेश प्राप्ति कहते है । कर्म और राग-द्वेष की यह गाँठ क्रमशः दृढ और गूढ रेशमी गाँठ के समान दुर्भेद है। यथाप्रवृत्तिकरण अभव्य जीवों को भी हो सकता है। वे कर्मों की स्थिति को कोडाकोडी सागरोपम
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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