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________________ बादर एकेन्द्रिय, असंज्ञि पंचेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रिय इन पाँच अपर्याप्त जीवस्थानों में दो गुणस्थान कहे गये है। पर इस विषय में यह जानना चाहिये कि दूसरा गुणस्थान करण-अपर्याप्त में होता है, लब्धिअपर्याप्त में नहीं, क्यों कि सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव लब्धि अपर्याप्त रूप से पैदा होता ही नही। इसलिए करण-अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि उक्त पाँच जीव स्थानों में दो गुणस्थान और लब्धि अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि पाँचों में पहला ही गुणस्थान है यह मान्यता कर्मग्रंथ की है। सिद्धान्त में एकेन्द्रिय को पहला ही गुणस्थान माना है । इसके पश्चात् साधक १५ योगों का चिन्तन करें। (३) योग-(१५) मन, वचन और काया के व्यापार को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या उपशम से मन-वचन और कायवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्म प्रदेशों में होनेवाले परिस्पंद, कंपन या हलन-चलन को भी योग कहते हैं। आलम्बन के भेद से इनके तीन प्रकार है- मन, वचन और काया। इन में मन के चार वचन के चार और काया के सात इस प्रकार कुल पंद्रह भेद हो जाते हैं। प्रज्ञापना सूत्र में योग के स्थान पर प्रयोग शब्द है। इन्हीं को प्रयोगगति भी कहा जाता है। १) सत्य मनोयोग- मन का जो व्यापार सत् अर्थात् सज्जन पुरुष या साधु पुरुषों के लिए हितकारी हो, उन्हें मोक्ष की ओर ले जानेवाला हो उसे सत्य मनोयोग कहते हैं। अथवा जीवादि पदार्थों के अनेकान्तरूप यथार्थ विचार को सत्यमनोयोग कहते हैं। २) असत्य मनोयोग- सत्य से विपरीत अर्थात् संसार की ओर ले जाने वाले मन के व्यापार को असत्य मनोयोग कहते हैं। अथवा जीवादि पदार्थ नहीं है, एकान्त सत् हैं इत्यादि एकान्त रूप मिथ्याविचार असत्य मनोयोग है। ३) सत्यमृषा मनोयोग- व्यवहार नय से ठीक होने पर भी निश्चयनय से जो विचार पूर्ण सत्य न हो,जैसे किसी उपवन में धव, खैर, पलाश आदि के कुछ पेड होने पर भी अशोकवृक्ष अधिक होने से अशोकवन कहना- सत्यमृषा मनोयोग है। वन में अशोक वृक्ष होने से यह बात सत्य है और धव आदि के वृक्ष होने से मृषा (असत्य) भी है। ४) असत्यामृषा मनोयोग- जो विचार सत्य नहीं हैं उसे असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं। किसी प्रकार का विवाद खडा होने पर वीतराग सर्वज्ञ के बताए हुए सिद्धान्त के अनुसार विचार करनेवाला आराधक कहा जाता है उसका विचार सत्य है। जो व्यक्ति सर्वज्ञ के सिद्धान्त से विपरीत विचरता है, जीवादि पदार्थों को एकान्त नित्य आदि बताता है वह विरोधक है। उसका विचार असत्य है। जहाँ वस्तु को सत्य या असत्य किसी प्रकार सिद्ध करने की इच्छा न हो केवल वस्तु का स्वरूप-मात्र दिखाया जाय, जैसे- देवदत्त! घडा लाओ इत्यादि चिन्तन में वहाँ सत्य असत्य कुछ नहीं होता। आराधक विराधक की कल्पना भी वहाँ नहीं होती। इस प्रकार के विचार को असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं। यह भी व्यवहार नय की अपेक्षा है। निश्चय नय से तो इसका सत्य या असत्य में समावेश हो जाता है। वचनयोग के भी चार प्रकार है- (१) सत्य वचनयोग (२) असत्य वचनयोग (३) सत्यमृषा वचनयोग (४) असत्यामृषा वचनयोग। सत्यवचन के दस प्रकार है। जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही बताना सत्य वचन है। एक जगह एक १ संदर्भ-गाथा - १६
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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