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ध्यान का सामान्य अर्थ विचार है। चित्त के द्वारा किसी विशेष शुद्ध रूप के चिन्तन करने को ध्यान कहते है। ध्यान में मुख्य तीन वस्तुएँ होती है- ध्याता, ध्येय और ध्यान। ध्यान करनेवाला 'ध्याता' होता है। ध्यान के लिए जिसका अवलम्बन किया जाता है वह 'ध्येय' होता है। और जो कुछ भी चिन्तन होता है, वह 'ध्यान' कहलाता है। ध्याता और ध्यान का मुख्य आधार ध्येय ही होता है अतः ध्येय का विचार किया जाता है।
ध्येय के चार प्रकार हैं- पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत।।
पिण्डस्थ- शान्त, कान्त एवं एकान्त स्थान में सिद्धासन आदि किसी श्रेष्ठ आसन से बैठकर पिण्डस्थ ध्यान ध्याया जाता है। पिण्ड यानी शरीर में विराजमान आत्मा रूप ध्येय का ध्यान पिण्डस्थ ध्यान होता है।
पदस्थ- दूसरा पदस्थ ध्यान है। यह पदों के द्वारा किया जाता है। अतः इसे पदस्थ कहते हैं। इसका कोई एक प्रकार नहीं है। साधक अपनी इच्छानुसार इसका संकल्प बना सकता है।
रूपस्थ- रूपस्थ की प्रक्रिया में महापुरुष तीर्थंकरों के भिन्न भिन्न संकल्पचित्र विचारे जाते हैं। महापुरुषों के संकल्प से आत्मा में दृढ साहस, पौरुष एवं आध्यात्मिक शक्ति का संचार होता है।
रूपातीत- रूपातीत का अर्थ है रूप से अतीत अर्थात् रूप रंग से सर्वथा रहित। यह अन्तिम प्रकार है। इसमें कर्ममल से रहित अशरीरी अजर, अमर, सिद्ध, भगवान के रूप में अपनी आत्मा का दृश्य विचारा जाता है। यहाँ पहुँचकर संकल्प करना चाहिए कि मैं देह नहीं हूँ क्यों कि देह दृश्यमान होता है, मैं दृष्टा हूँ। मैं इन्द्रिय भी नहीं हूँ, क्यों कि इन्द्रियाँ भौतिक हैं, मैं अभौतिक हूँ। मैं प्राण नहीं हूँ क्यों कि प्राण अनेक है, मैं पूर्ण स्थिर हूँ। इस प्रकार विचार करते करते अपने आप को सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, निर्विकार, आनन्दरूप, ज्योतिर्मय विचारना चाहिए। यह रूपातीत ध्यान है।
आगम साहित्य में चार ध्यानों का भी उल्लेख आता है- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। आर्त और रौद्रध्यान नरकादि अनन्त संसार में परिभ्रमण का कारण होने से इसका साधक को त्याग करना चाहिए। जब तक साधक के मन पर आर्त और रौद्र ध्यान के दुःसंकल्प नहीं हटतें तब तक वह आत्म के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः साधक इन दुर्ध्यान से आत्मा को सदैव बचाकर रखें।
___ आत्मा को सर्वोच्च स्थिति पर पहुँचानेवाला ध्यान धर्मध्यान और शुक्लध्यान है। धर्मध्यान के चार प्रकार है- आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय।
आज्ञा विचय- भगवान की आज्ञा क्या है? उसका हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है? भगवान की आज्ञाओं का आराधन कर हम अपने जीवन को पवित्र बना सकते हैं? दूसरे मत-प्रवर्तकों की वाणी की अपेक्षा जिनवाणी की क्या विशेषता है? आदि विचारों का तलस्पर्शी अध्ययन करना चिन्तन करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है।
अपायविचय- अपने में क्या क्या दोष रहे हुए है? क्रोध, मान, माया और लोभ का वेग कितना कम हुआ है कितना बाकी है? कर्म बन्धन क्यों होता है? इससे कैसे छुटकारा हो सकता है? दूसरे जीवों को भी पाप मार्ग से कैसे बचा सकता हूँ? यह विचार धारा अपायविचय है।
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आवश्यक चूर्णि ४ अ./योगशास्त्र७.१/ज्ञानार्णव४.५, २ योगशास्त्र७.५.१, ३ स्थानांग ४.१.६