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के क्षेत्र में पवित्र ध्यान के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है। ध्यान से विशुद्ध हआ आत्मा ज्ञानावरणादि घातिकर्मों का सर्वथा नाश कर लोकालोकप्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त कर अनन्त सुख शांति को प्राप्त करता
ध्यान की साधना के लिए प्रथम आवश्यक है- भावशुद्धि। भावशुद्धि से अभिप्राय है मन, वचन और शरीर की शुद्धि अर्थात् इनकी एकाग्रता। जब तक साधक मन, वचन और काया को एकाग्र नहीं करता तब तक वह ध्यान की प्रक्रिया में उत्क्रान्ति नहीं ला सकता। मन की गति बडी विचित्र है। एक प्रकार से जीवन का सारा भार ही मन के ऊपर पड़ा हुआ है। महाभारतकार कहते हैं
'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः'।
'मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण है।' वास्तव में यह बात है भी ठीक। मन का काम विचार करना है, फलतः आकर्षण-विकर्षण, कार्याकार्य, स्थितिस्थापकता आदि सब कुछ विचार शक्ति पर ही निर्भर है। और तो क्या? हमारा सारा जीवन ही विचार है। विचार ही हमारा जन्म है, मृत्यु है, उत्थान है, पतन है, स्वर्ग है, नरक है, सब कुछ है। विचारों का वेग अन्य सब वेगों की अपेक्षा अधिक तीव्र गतिमान होता है। आज-कल के विज्ञान का मत है कि प्रकाश का वेग एक सेकण्ड में १८००० मील है। विद्युत का वेग २८८000 मील है, जब की विचारों का वेग २२६५१२० मील है। उक्त कथन में अनुमान लगाया जा सकता है कि मनोजन्य विचारों का प्रवाह कितना तेज है।
विचारशक्ति के मुख्यतया दो भेद है। एक कल्पनाशक्ति और दूसरी तर्कशक्ति। कल्पनाशक्ति का उपयोग करने से मन में अनेक प्रकार के संकल्प विकल्प उठने लगते हैं। मन चंचल और वेगवान हो जाता है किसी भी प्रकार की व्यवस्था नहीं रहती। इन्द्रियों पर जिनका राजा मन है, जिन पर वह शासन करता है, स्वयं अपना नियंत्रण कायम नहीं रख सकता। जब मन चंचल हो उठता है, तो कर्मों का प्रवाह चारों ओर से अन्तरात्मा की ओर उमड पडता है। फलस्वरूप आत्मा दीर्घकाल तक कर्मफल से आबद्ध हो जाता है। मन की दूसरी शक्ति तर्कशक्ति है, जिसका उपयोग करने से कल्पनाशक्ति पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है। विचारों को व्यवस्थित बनाकर असत्संकल्पों का मार्ग छोडा जाता है, एवं सत्संकल्पों का मार्ग अपनाया जाता है। तर्कशक्ति के द्वारा पवित्र हुई मनोभूमि में ज्ञान एवं क्रियारूपी अमृत जल से सिंचन पाता हुआ समभाव रूपी कल्पवृक्ष बहुत ही शीघ्र फलशाली हो जाता है। राग, द्वेष, भय, शोक, मोह, माया आदि का अन्धकार कल्पना का अन्धकार है, और वह शुभ तर्कशक्ति का सूर्यउदय होते ही तथा अहिंसा, दया, सत्य, संयम, शील, संतोष आदि की किरणें प्रस्फुरित होते ही अपने आप ध्वस्त-विध्वस्त हो जाता है।
प्रश्न यह है कि- मन को नियन्त्रित कैसे किया जाय? मन का नियन्त्रण दो प्रकार से किया जा सकता है। एक तो उसकी गति का मार्ग परिवर्तन करने से और दूसरे उसे गतिहीन कर देने से। योग दर्शन में मन को गतिहीन बनाने का विधान है किन्तु मनस्थिरीकरण के लेखक आचार्य ऐसा नहीं मानते, उनका विश्वास मार्ग परिवर्तन पर ही है। उनका कहना है कि मन जब तक मन रूप में है, गतिशील ही रहेगा। उसे गतिहीन करना सम्भव नहीं है। वह कुछ न कुछ करता ही रहता है। अतः मन को वश में रखने का यही एक उपाय है किउसको दान से हटाकर सध्यान, सच्चिंतन की ओर लगा दिया जाय।।
१ कपिवच्च बहिर्विषयव्यापारं विना कदाचिदपि स्थिरं न भवति । ततः तजिनोपदेशरज्जुभिः सम्यग् नियम्य शुभध्यानारामे रमयितव्यमिति श्रुतोपदेशः ।