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________________ गुरुगुणषट्त्रिंशिका जैसे सुन्दर स्तोत्र साहित्य की भी आपने रचना की। आपने अन्य भी अनेक छोटे बडे ग्रन्थ की रचना कर साहित्य जगत की अपूर्व सेवा की। स्वर्गवास 11 दीर्घकालीन संयम जीवन में आपने धार्मिक सामाजिक एवं साहित्य क्षेत्र में जो प्रदान किया है वह अमूल्य है। इस प्रकार आप विहार करते हुए अपने अंतिम चातुर्मास के लिए खंभात में विराजमान थे। वि.सं. १३०९ में पर्यूषण पर्व में कल्पसूत्र का वाचन करते करते पाट पर बैठे बैठे ही आप समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हो गये । मनःस्थिरीकरणप्रकरण सार प्रथम ग्रन्थकार मंगलाचरण करते हुए श्रीवर्द्धमान महावीर भगवान) की वन्दना करते हैं। पश्चात् कहते है कि यह मन हाथी के कान की तरह, उच्च शिखर स्थित ध्वज की तरह अत्यंत चंचल है। इस चंचल मन को स्थिर करने के लिए ही मैं इस ग्रन्थ की रचना करता हूँ। मनुष्य जन्म अत्यंत दुर्लभ है। दुर्लभ मानव भव में जिन धर्म को प्राप्त कर कर्म का नाश करने का उपाय करना चाहिए। कर्मनाश करने के आवश्यक स्वाध्याय, ध्यान, धर्म देशना आदि अनेक साधन हैं किन्तु कर्म को नाश करने का एक मात्र साधन ध्यानयोग ही है। ध्यान साधना के क्षेत्र में ध्यान का महत्व बहुत उँचा है। ध्यान की महिमा अपरंपार है। तीनों लोक में ऐसा कोई भी कार्य नही जो ध्यान के द्वारा साध्य न हो। ध्यान के प्रताप से ध्याता संसार के ताप, संताप, परिताप एवं समस्त पाप से मुक्ति पाता है। कहा भी है जह चिरसंचिवमिंधणमणलो पवनसहिओ हुयं डहड़। तह कम्मिंधणममियं खणेण झाणानलो डहड़ || जह वा घणसंघाया, खणेण पवणाया विलिज्जति । ज्झाणपवणावधूया, तह कम्मघणा विलिज्जंति ॥ (ध्यानशतक १०१ / १०२) 'जैसे लम्बे समय से संग्रहीत सूखी लकडी के ढेर को पवन सहित अग्नि जलाकर नष्ट कर देती है वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि चिरकाल से संचित कर्म को नष्ट कर देती हैं। जैसे बादलों का समूह पवन से नष्ट हो जाता है वैसे ही ध्यान रूपी पवन से कर्म रूपी बादल नष्ट हो जाते हैं। ' ध्यान एक पाप रहित साधना है। इस साधना में जरा सा भी पाप का अंश नहीं होता। पाप क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यह है कि ध्यान के काल में चित्तवृत्ति शान्त रहती है, अतः नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। ध्यान करते समय किसी का भी अनिष्ट चिन्तन नहीं किया जाता, प्रत्युत सब जीवों के श्रेय के लिए विश्व कल्याण की भावना भाई जाती है, फलतः आत्मस्वभाव में रमण करते करते साधक अध्यात्म विकास की उच्च श्रेणियों पर चढता हुआ आत्मनिरीक्षण करने लग जाता है, तथा अशुद्ध व्यवहार, अशुद्ध उच्चार, अशुद्ध विचार के प्रति पश्चाताप करता है उनका त्याग करता है, अठारह पापों से अलग हो कर आत्म जागृति १ संदर्भ अंचलगच्छना इतिहासनी झलक पृ. ५६, २ संदर्भ - गाथा १, ३ संदर्भ - गाथा १, वृत्ति, ४ संदर्भ-गाथा २, वृत् -
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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