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________________ 14 विपाकविचय- जीव सुखी किस कर्म से होता है और दुःखी किस कर्म से होता है? किस कर्म का क्या फल होता है? या फल तीव्र या मन्द क्यों कर हो सकता है? आदि गम्भीर विचार विपाकविचय कहलाता है। ___ संस्थानविचय- लोक का क्या स्वरूप है? नरक और स्वर्ग का क्या स्वरूप है? मुक्ति का क्या संस्थान है? जड और चेतन में क्या भेद है? पुद्गल शुभ से अशुभ और अशुभ से शुभ कैसे बदल जाता है? आदि विचार संस्थानविचय कहा जाता है। चेतना की निरुपाधिक परिणति शुक्लध्यान है। उसके भी चार प्रकार है(१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार, (२) एकत्व-वितर्क-अविचार. (३) सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति, (४) समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्ति (१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार : एक द्रव्य विषयक अनेक पर्यायों का पृथक् पृथक् रूप के विस्तारपूर्वक पूर्वगत श्रुत के अनुसार द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदि नयों से चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्कसविचार है। यह ध्यान विचार सहित होता है। विचार का स्वरूप है अर्थ, व्यञ्जन(शब्द) एवं योगों में संक्रमण। अर्थात् इस ध्यान में अर्थ से शब्द में और शब्द से अर्थ में और शब्द से शब्द में, अर्थ में एवं योग से दूसरे योग में संक्रमण होता है। पूर्वगत श्रत के अनुसार विविध नयों से पदार्थों के पर्यायों का भिन्न भिन्न रूप से चिन्तन रूप यह शुक्ल ध्यान पूर्वधर को होता है और मरुदेवी माता की तरह जो पूर्वधर नहीं है, उन्हें अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों में परस्पर संक्रमण रूप यह शुक्लध्यान होता है। (२) एकत्व-वितर्क-अविचार : जब एक द्रव्य के किसी भी पर्याय का अभेद दृष्टि से चिन्तन किया जाता है और पूर्वश्रुत का आलम्बन लिया जाता है वह एकत्व वितर्क है। इस ध्यान में अर्थ, व्यञ्जन एवं योगों का संक्रमण नहीं होता । निर्वात गृह में रहे हुए दीपक की तरह इस ध्यान में चित्त विक्षेप रहित अर्थात् स्थिर रहता है। (३) सूक्ष्म-क्रिया-अप्रतिपाति : निर्वाण गमन के पूर्व केवली भगवान मन, वचन, योगों का निरोध कर लेते है और अर्द्ध काय योग का भी निरोध कर लेते हैं। उस समय केवली के कायिकी उच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रिया ही रहती है। परिणामों के विशेष बढे चढे रहने से यहाँ से केवली पीछे नहीं हटते। यह तीसरा सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान है। (४) समुच्छिन्न-क्रिया-अनिवृत्ति : शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली सभी योगों का निरोध कर लेता है। योगों के निरोध से सभी क्रियाएँ नष्ट हो जाती है। यह ध्यान सदा बना रहता है इसलिए इसें समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान कहते हैं। प्रथम ध्यान सभी योगों में रहता है। द्वितीय ध्यान किसी एक ही योग में होता है। तृतीय ध्यान केवल काययोग में होता है। चौथा ध्यान अयोगी को ही होता है। छद्मस्थ के मन को निश्चल करना ध्यान कहलाता है। शुक्ल ध्यान पूर्वधर एवं विशिष्ट संहनन वाले ही कर सकते है। अतः यहाँ धर्मध्यान का ही विचार करना चाहिए। ध्यान के लिए निम्नलिखित बातें उपयोगी हो सकती है। १ तत्त्वार्थसूत्र - ९.४.१, ध्यानशतक - ७७/७८
SR No.009261
Book TitleMan Sthirikaran Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages207
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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