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परिशिष्ट-१
अब्भुवगत गतवेरे णाउं गिहिणो वि मा हु अहिगरणं । कुज्जा हु कसाए वा अविगडितफलं च सिं सोउं ॥१११॥ (छाया) पच्छित्ते बहुपाणो कालो बलितो चिरं तु ठायव्वं । सज्झाय-संजमतवे धणियं अप्पा णिओतव्वो ॥११२॥ (क्षमा) पुरिमचरिमाण कप्पो मंगलं (तु मंगलं) वद्धमाणतित्थंमि । इह परिकहिया जिण-गणहराइथेरावलिचरित्तं ॥११३॥ (छाया) सुत्ते जहा निबद्धं वग्घारिय भत्त-पाण अग्गहणे । णाणट्ठि तवस्सी अणहियासि वग्धारिए गहणं ॥११४॥ (गौरी)
अभ्युपगतगतवैरान्, ज्ञात्वा गृहिणोऽपि मा खलु अधिकरणम् । कुर्यात् खलु कषाये वा अविगणितफलं चैषां श्रुत्वा ॥१११॥ प्रायश्चित्तं बहुप्राणः कालः बलितः चिरं तु (न) स्थातव्यम् । स्वाध्यायसंयमतपःसु अत्यर्थम् आत्मा नियोक्तव्यः ॥११२॥ पूर्वचरमयोः कल्पः माङ्गल्यं वर्धमानतीर्थे । इह परिकथिता जिनगणधरादिस्थविरावलिचरित्रम् ॥११३॥ सूत्रे यथानिबद्धं प्रलम्बितभक्तपानाग्रहणे । ज्ञानार्थी तपस्वी अनध्यासी प्रलम्बिते ग्रहणम् ॥११४॥
कषाय-दोषों को जानकर, वैर त्यागकर, गृहस्थों के प्रति भी अधिकरण नहीं करना चाहिए अथवा कषायों के परिणाम का विचार किये बिना कषाय भी नहीं करना चाहिए ॥१११॥
(ऋतुबद्धकाल के आठ महीने में प्रायश्चित्त न कर पाने के कारण सञ्चित) प्रायश्चित्त के लिए, वर्षाऋतु में पृथ्वी के बहुप्राणों वाली होने के कारण तथा प्रायश्चित्त ग्रहण करने की दृष्टि से अनुकूल काल होने के कारण, (एक स्थान पर) दीर्घकाल तक वास करना चाहिए । आत्मा को सद्ध्यान, संयम और तप में भलीभाँति योजित करना चाहिए ॥११२।।
प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के समय में कल्प अर्थात् वर्षावास अवश्य होता है, (मध्य के तीर्थंकरों के समय वर्षावास विकल्प से होता है), कल्याण के लिए वर्धमान तीर्थ में जिनों का चरित्र और गणधरों की स्थविरावली वर्णित है ॥११३।।
जिस प्रकार कल्पसूत्र में अनवरत वर्षा होने पर भक्त-पान का अग्रहण वर्णित है, ज्ञानार्थी, तपस्वी और (भूख सहन करने में) असमर्थ को (अनवरत वर्षा में) भिक्षा ग्रहण का कथन है ॥११४||