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सयगुणसहस्सपागं, वणभेसज्जं वतीसु जायणता ।
तिक्खुत्त दासीभिंदण ण य कोवो सयं पदाणं च ॥१०७॥ ( चूर्णा)
पासत्थि पंडुरज्जा परिण्ण गुरुमूल णाय अभिओगा । पुच्छति पडिक्कमणे, पुव्वब्भासा चउत्थम्मि ॥ १०८॥ (गौरी) अपडिक्कम सोहम्मे अभिओगा देवि सक्कओसरणं । हत्थिणि वायणिसग्गो गोतमपुच्छा य वागरणं ॥ १०९॥ ( धात्री )
महूरा मंगू आगम बहुसुय वेरग्ग सड्ढपूया य । सातादिलोभ णितिए, मरणे जीहा य णिद्धमणे ॥ ११०॥ ( धात्री)
शतगुणसहस्त्रपाकं व्रणभैषज्यं यतेर्याचना ।
त्रिः कृत्वः दासीभेदनं न च कोपः स्वयं प्रदानं च ॥ १०७॥
पार्श्वस्था पाण्डुरार्या परिज्ञा गुरुमूलं ज्ञाताभियोगा । पृच्छत्रि प्रतिक्रमणे पूर्वाभ्यासाच्चतुर्थे ॥१०८॥
अप्रतिक्रम्य सौधर्मे अभियोगा देवी शक्रावसरणम् । हस्तिनी वातनिसर्गो गौतमपृच्छा च व्याकरणम् ॥१०९॥
मथुरायां मङ्गुः आगमबहुश्रुतः वैराग्यं श्राद्धपूजा च । सातादिलोभः नित्यः, मरणे जिह्वया निर्धमनम् ॥११०॥
कल्पनिर्युक्तिः
पर भी उसका कुपित न होना, बल्कि स्वयं प्रदान करना ॥ १०४ - १०७।।
शिथिलाचारिणी पाण्डुरार्या (सदा श्वेतवस्त्रधारिणी होने से प्रदत्त नाम) को उसके माँगने पर गुरु द्वारा भक्त प्रत्याख्यान दिया गया । ( विद्यामन्त्र के बल से पाण्डुरार्या के आह्वान करने से लोगों के आने पर) गुरु द्वारा प्रतिक्रमण के समय तीन बार कारण पूछने पर आह्वान की बात स्वीकार करती है,
परन्तु चौथी बार पूछने पर कहती है कि पहले के अभ्यास के कारण आते हैं । प्रतिक्रमण न करने के कारण समय आने पर पाण्डुरार्या सौधर्मकल्प में ऐरावत की अग्रमहिषी हुई । समवसरण में भगवान् के आगे स्थित होकर उसके उच्च स्वर करने पर, गौतम द्वारा पूछने पर ( भगवान् महावीर द्वारा इस कथा का) व्याख्यान किया जाता है ॥ १०८ - १०९॥
से
आर्यमङ्गु (विहार करते हुए) मथुरा गये, आगम बहुश्रुत एवं वैराग्ययुक्त होने से लोग श्रद्धा पूजा करते थे, सातादि लोभ के कारण (वे विहार नहीं करते थे), नियमत: (शेष साधु विहार किये), श्रमणाचार की विराधना के कारण वे मरकर (व्यन्तर हुए, साधुओं के उस प्रदेश से निर्गमन करने पर यक्ष प्रतिमा में प्रविष्ट होकर) जिह्वादि निकालकर (अपने यक्ष होने का वृत्तान्त बताकर लोभ कषाय न करने का उपदेश देते थे) ॥११०॥