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कल्पनियुक्तिः
संजमखेत्तचुयाणं णाणट्ठि-तवस्सि-अणहियासाणं । आसज्ज भिक्खकालं, उत्तरकरणेण जतियव्वं ॥११५॥ (धात्री) उण्णियवासाकप्पो लाउयपायं च लब्भए जत्थ । सज्झाएसणसोही वरिसति काले य तं खित्तं ॥११६॥ (क्षमा) पुव्वाहीयं नासइ, नवं च छातो अपच्चलो घेत्तुं । खमगस्स य पारणए वरिसति असह व बालाई ॥११७॥ (धात्री) वाले सुत्ते सुई कुडसीसग छत्तए अपच्छिमए । णाणट्ठि तवस्सी अणहियासि अह उत्तरविसेसो ॥११८॥ (धात्री)
संयमक्षेत्रच्युतानां ज्ञानार्थि-तपस्वि-अनध्यासिकानाम् । आसाद्य भिक्षाकालं उत्तरकरणेन यतितव्यम् ॥११५॥
औणिकं वर्षाकल्पं अलाबूपात्रं च लभ्यते यत्र । स्वाध्यायैषणाशुद्धिः वर्षति काले च तत् क्षेत्रम् ॥११६॥ पूर्वाधीतं नश्यति, नवं च बुभुक्षितः अप्रत्यलः ग्रहीतुम् । क्षपकस्य च पारणकं वर्षति असहश्च बालादिः ॥११७॥ वालः सौत्रं सूचिः कुटशीर्षकछत्रकोऽपश्चिमकः । ज्ञानार्थी तपस्वी अनध्यासी अथ उत्तरविशेषः ॥११८॥
संयम क्षेत्र का त्याग किये हुए, ज्ञानार्थी, तपस्वी और (भूख को) सहन न कर सकने वाले साधु को (निरन्तर वर्षा होते रहने पर) भिक्षाकाल आने पर हाथ से ढ़ककर भिक्षा माँगनी चाहिए ॥११५||
जहाँ ऊनी वस्त्र, तुम्बीपात्र आदि प्राप्त होता है, स्वाध्याय एवं भिक्षा होती है और समय पर वर्षा होती है, वह क्षेत्र होता है ॥११६।।
क्षुधा को सहन न कर सकने वाले का पूर्व में अध्ययन किया नष्ट हो जाता है, वह नये विषय को ग्रहण करने में भी असमर्थ हो जाता है । तपस्वी व्रत के उपरान्त पारणा करने वाला तपस्वी बालादि वर्षा होने पर भूख को सहने में असमर्थ है ॥११७।।
(यदि ऊन निर्मित वस्त्र है तो उससे सिर ढ़ककर भ्रमण करते हैं । नहीं तो) केश निर्मित, सूत्र निर्मित, ताड़पत्र, बाँस की बनी हुई सिरत्राण और अन्ततः छत्र से (सिर ढ़ककर) भ्रमण करते हैं। ज्ञानार्थी, तपस्वी और भूख न सहन करने वाले के लिए प्रधान और विशेष रूप से उत्तरकरण कहा गया है ॥११८॥