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उदय सरिच्छा पक्खेण वेति चउमासिएण सिगयसमा । वरिसेण पुढविराई आमरण गती उ पडिलोमा ॥ १००॥ ( महामाया ) सेलट्ठि थंभ दारूय लया य वंसी य मिंढगोमुत्तं । अवलेहणीया किमिराग कद्दम कुसुंभय हलिद्दा ॥ १०१ ॥ ( धात्री ) ( अवलेहणि किमिकद्दम कुसुंभ रागे हलिद्दा य )
एमेव थंभकेयण, वत्थेसु परूवणा गईओ य । मरूयऽच्चंकारिय पंडुरज्ज मंगू य आहरणा ॥१०२॥ (गौरी)
उदकसदृक्षाः पक्षेणापैति चातुर्मासिकेन सिकतासमाः । वर्षेण पृथिवीराजि: आमरणं गतयस्तु प्रतिलोमा ॥१००॥ शैलाऽस्थिस्तम्भदारुकलताश्च वंशश्च मेण्ढः गोमूत्रम् ॥१०१॥ (अवलेखनी-कृतिकर्दम-कुसुम्भरागश्च हरिद्रा च । ) एवमेव स्तम्भकेतन वस्त्रेषु प्ररूपणा गतयश्च । मरुत् अत्यहङ्कारिता पाण्डुरार्या मङ्गश्च आहरणाः ॥ १०२॥
कल्पनिर्युक्तिः
जो क्रोध जल में खींची रेखा सदृश एक पक्ष में नष्ट हो जाता है, बालू (रेत में) में (खींची रेखा) सदृश चार मास में उपशान्त हो जाता है, पृथ्वी में पड़ी दरार के समान एक वर्ष में समाप्त हो जाता है । (जिस प्रकार पर्वत में पड़ी रेखा कभी नहीं मिटती उसी प्रकार जीवन पर्यन्त यह क्रोध नहीं) शान्त होता है | गति की दृष्टि से इनका सङ्गणन प्रतिलोम अर्थात् विपर्यय क्रम से होना चाहिए । (कषाय प्रथम - गतिचतुर्थ, संज्वलन कषायी - देवगति, प्रत्याख्यानकषायी - मनुष्य गति, अप्रत्याख्यानकषायी तिर्यञ्चगति और अनन्तानुबन्धी कषायी - नरकगति को प्राप्त होता है ) ||१००||
मान पर्वतस्तम्भ, अस्थिस्तम्भ, काष्ठस्तम्भ और लता समान होता है । माया कषाय जैसे बाँस की जड़ (जिसका टेढ़ापन दूर होना अतिदुष्कर), भेड़े की सींग - दुष्कर, गोमूत्र - सरल और बाँस का छिलका अतिसरल है । लोभकषाय जैसे कृमिराग सदृश लोभ ( दूर होना असम्भव ), कर्द्दमराग सदृश लोभ (दूर होना दुष्कर), पुष्पराग सदृश लोभ ( दूर होना सरल ) जैसे हल्दी का रङ्ग दूर होना (अति सरल ) ॥१०१॥
इसी प्रकार स्तम्भ, वक्रता और वस्त्रों में गतियों की प्ररूपणा की गई है और कषायों के निरूपण में मरुत्, अत्यहङ्कारिणी भट्टा, पाण्डुरार्या और मङ्गु का दृष्टान्त दिया गया है ॥१०२॥