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कल्पनियुक्तिः
उच्चार-पासवण-खेलमत्तए (उ) तिण्णि तिण्णि गेण्हंति । संजय-आएसट्ठा भुंजेज्जऽवसेस उज्झंति ॥८४॥ (देही) धुवलोओ उ जिणाणं णिच्चं थेराण वासवासासु । असहू (तु) गिलाणस्स व, णातिक्कामेज्ज तं रयणिं ॥८५॥ (देही) मोत्तुं पुराण-भावियसड्ढे संविग्ग सेसपडिसेहो । मा निद्दओ भविस्सइ भोयणमोए य उड्डाहो ॥८६॥ (देही) इरिएसण-भासाणं मण-वयसा-काइए य दुच्चरिए । अहिगरणकसायाणं संवच्छरिए विओसवणं ॥८७॥ (छाया)
उच्चारप्रस्रवणश्लेष्ममात्रकानि त्रीणि त्रीणि गृह्णन्ति । संयमादेशार्थं भुञ्जीरन् अवशेषमुज्झन्ति ॥८४॥ ध्रुवलोचस्तु जिनानां नित्यं स्थविराणां वर्षावासेषु । असहुग्लानस्य च, नातिक्रामेत् तां रजनीम् ॥८५॥ मुक्त्वा पुराणभावितश्राद्धौ संविग्नं शेषप्रतिषेधः । मा निर्दयो भविष्यति भोजनमोचयोश्च उडाहः ॥८६॥ ईर्यैषणाभाषाणां मनोवचोभ्यां कायेन च दुश्चरितानाम् । अधिकरणकषायानां सांवत्सिरके व्युत्सर्जनम् ॥८७॥
प्रत्येक साधु मलोत्सर्ग, मूत्रोत्सर्ग और श्लेष्म के निमित्त तीन-तीन पात्र ग्रहण करते हैं । साधु (आचार्य की) आज्ञा होने पर (आहार) ग्रहण करते हैं, (वे) बचे हुए आहार का त्याग करते हैं ॥८४||
जिनकल्पी साधुओं को नियमित लोच करना चाहिए, स्थविर-कल्पियों को चातुर्मास में नियमित लोच करना चाहिए । असमर्थ एवं ग्लान के लोच के लिए पर्युषणा की अन्तिम रात्रि का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए ॥८५॥
पुराने शिष्य (जिसको पूर्व में दीक्षा दी जा चुकी हो), श्रद्धायुक्त अन्त:करणवाले श्रावक एवं मुमुक्षु को छोड़कर अन्य को चातुर्मास में (दीक्षा देने का) निषेध है । (वर्षाकाल में दीक्षा से) वह निर्दय न हो जाए तथा भोजनत्याग से श्रमणधर्म के प्रति दुःखाग्नि न दीप्त हो ॥८६॥
ईर्या, एषणा, भाषा (आदान-निक्षेप, परिष्ठापना इन पाँच समितियों) का मन, वचन और शरीर से पालन करना चाहिए । कुत्सित आचरण, पापकर्म और कषायों को संवत्सरी में उपशान्त करना चाहिए
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