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परिशिष्ट-१
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पुव्वाहारोसवण जोगविवड्डी य सत्तिउग्गहणं । संचइय असंचइए दव्वविवड्डी पसत्था उ ॥८०॥ (धात्री) विगतिं विगतीभीओ विगइगयं जो उ भुंजए भिक्खू । विगई विगयसभावं (उ) विगती विगतिं बला नेइ ॥८१॥ (छाया) पसत्थविगईगहणं गरहियविगतिग्गहो य कज्जम्मि । गरहा लाभपमाणे पच्चय पावप्पडीघाओ ॥८२॥ (चूर्णा) कारणओ( कारणे) उडुगहिते उज्झिऊण गेण्हंति अण्णपरिसाडी । दाउं गुरुस्स तिण्णि उ सेसा गेण्हंति एक्केक्कं ॥८३॥ (देही)
पूर्वाहारोत्सर्जनं योगविवृद्धिश्च शक्तितो ग्रहणम् । सञ्चितासञ्चिते द्रव्यविवृद्धिः प्रशस्ता तु ॥८०॥ विकृति विकृतिभीतः (विगतिभीतः) विकृतिगतं यत्तु भुङ्क्ते भिक्षुः । विकृतिः विकृतस्वभावा विकृतिविकृतिं बलान्नयति ॥८१॥ प्रशस्तविकृतिग्रहणं गर्हितविकृतिग्रहश्च कार्ये । गर्दा लाभप्रमाणे प्रत्ययः पापप्रतिघातः ॥८२॥ कारणत ऋतुगृहीते उज्झित्वा गृह्णन्ति अन्यापरिशाटीन् । दत्त्वा गुरोः त्रीन् शेषाः गृह्णन्ति एकैकम् ॥८३॥
पूर्व अर्थात् ऋतुकाल-शीत और ग्रीष्म काल में ग्रहण किये गये आहार का यथाशक्ति सामर्थ्य बढ़ाकर त्याग करना चाहिए, (विकृति) स्थापना-सञ्चयिक और असञ्चयिक दो प्रकार की है, प्रशस्त कारणों से गृहीत द्रव्य विवृद्धिकृत है ॥८०।।
विविधगति (संसार) से भयभीत या विगति अर्थात् कुगति से भयभीत जो श्रमण विकृति (विकार) जनित वस्तु और विकृति को प्राप्त भोजन-पान आदि ग्रहण करता है, उसे विकार स्वभाव वाली विकृति बलपूर्वक विकृति (असंयम या दुर्गति) की ओर ले जाती है ।
प्रशस्तविकृति ग्रहण और अप्रशस्त विकृति ग्रहण, कार्य या प्रयोजन वश करना चाहिए । अप्रशस्त विकृति के ग्रहण की मात्रा का निश्चय (जितने प्रमाण में बाल, वृद्ध या ग्लान के लिए आवश्यक हो) उससे करना चाहिए । कारण पूर्ण होने पर अप्रशस्त पाप की आलोचना करनी चाहिए ॥८२॥
कारणवश ऋतुकाल (शीत एवं ग्रीष्म काल) में ग्रहण किये गये संस्तारक को त्यागकर अन्य को ग्रहण करते हैं । दूसरे साधुओं को प्रदान करने के लिए गुरु तीन धारण करते हैं, जबकि शेष एक-एक ग्रहण करते हैं ॥८३।।