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________________ कल्पनियुक्तिः इय सत्तरी जहण्णा असीति णउती दसुत्तरसयं च । जइ वासति मग्गसिरे दसराया तिण्णि उक्कोसा ॥६८॥ (चूर्णा) काऊण मासकप्पं तत्थेव ठियाणऽतीए मग्गसीरे । सालंबणाण छम्मासितो तु जेट्टोग्गहो होति ॥६९॥ (देही) जइ अत्थि पयविहारो चउपडिवयम्मि होइ गंतव्वं । अहवावि अणितस्सा आरोवण पुव्वनिद्दिट्ठा ॥७०॥ (चूर्णा) काईयभूमी संथारए य संसत्त दुल्लहे भिक्खे । एएहिं कारणेहिं अपत्ते होइ निग्गमणं ॥७१॥ (विद्या) इति सप्ततिर्जघन्याऽशीतिर्नवतिर्दशोत्तरशतं च । यदि वर्षति मार्गशीर्षे दशरात्रयः तिस्त्र उत्कृष्टाः ॥६८॥ कृत्वा मासकल्पं तत्रैव स्थितानामतीते मार्गशीर्षे । सालम्बनानां पाण्मासिकस्तु ज्येष्ठावग्रहो भवति ॥६९॥ यद्यस्ति पदविहार: चतुःप्रतिपत्सु भवति गन्तव्यम् । अथवाऽपि अगच्छतः आरोपणा पूर्वनिर्दिष्टा ॥७०॥ कायिकभूमिः संस्तारकश्च संसक्तः दुर्लभा भिक्षा । एतैः कारणैरप्राप्ते भवति निर्गमनम् ॥७१॥ इस प्रकार सत्तर दिन का वर्षावास जघन्य, अस्सी, नब्बे और एक सौ दस दिन, तथा यदि मार्गशीर्ष में (अनवरत) वर्षा हो तो तीन दसरात्रि (तीस दिन) तक (सामान्य चार मास के अतिरिक्त) और अधिकतम वर्षावास कर सकता है ॥६८॥ जिस स्थान पर मासकल्प किया हो उसी स्थान पर वर्षावास करते हुए कारणपूर्वक मार्गशीर्ष भी व्यतीत हो जाने पर छ: मास का ज्येष्ठावग्रह या वर्षावास होता है ॥६९|| यदि (वर्षावास कर रहे साधु को चातुर्मास के मध्य) सकारण पदविहार करना पड़े तो चार पर्वतिथियों को ही प्रस्थान करना चाहिए अथवा न जाने का भी (कुछ ने) पहले निर्देश किया है ॥७०॥ जीवों से युक्त भूमि, संस्तारक भी जीवों से युक्त हो, भिक्षा दुर्लभ हो, इन कारणों से चातुर्मास पूर्ण न होने पर भी विहार करना चाहिए ॥७१।।
SR No.009260
Book TitleKalpniryukti
Original Sutra AuthorBhadrabahusuri
AuthorManikyashekharsuri, Vairagyarativijay
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2014
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size3 MB
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