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परिशिष्ट-१
बाहिं ठित्तति वसभेहिं खेत्तं गाहेत्तु वासपाओग्गं । कप्पं कहेत्तु ठवणा सावण सुद्धस्स पंचाहे ॥६४॥ (क्षमा) एत्थ तु अणभिग्गहिअं वीसतिरायं सवीसतीमासं । तेण परमभिग्गहिअं गिहिणातं कत्तिओ जाव ॥६५॥ (धात्री) असिवाइकारणेहिं अहवा वासं ण सुट्ठ आरद्धं । अहिवड्डियम्मि वीसा इयरेसु सवीसई मासो ॥६६॥ (गौरी) एत्थ तु पणगं पणगं कारणियं जा सवीसतीमासो । सुद्धदसमीट्ठियाण व आसाढीपुण्णिमोसरणं ॥६७॥ (धात्री)
बहिःस्थिताः ऋषभैः क्षेत्रं ग्राहयित्वा वासप्रायोग्यम् । कल्पं कथयित्वा स्थापना श्रावणाशुद्धस्य पञ्चमेऽहनि ॥६४॥ अत्र त्वनभिगृहीतं विंशतिरात्रं सविंशतिमासम् । तेन परमभिगृहीतं गृहिज्ञातं कार्तिकं यावत् ॥६५॥ अशिवादिकारणैरथवा वर्षणं न सुष्ठ्वारब्धम् । अभिवद्धिते विंशतयः इतरेषु सविंशतिर्मासः ॥६६॥ अत्र तु पञ्चकं पञ्चकं कारणिकं यावत् सविंशतिर्मासः । शुद्धदशमीस्थितानां च आषाढीपूर्णिमावसरणम् ॥६७॥
(वर्षावास क्षेत्र से) बाहर (नियत स्थान पर) स्थित श्रेष्ठ साधुओं को वर्षावास योग्य क्षेत्र (स्थान) ग्रहण कर, कल्प (वर्षावास) की घोषणा कर श्रावण-कृष्ण पक्ष पञ्चमी से वर्षावास की स्थापना करनी चाहिए ॥६४॥
(चातुर्मास हेतु नियत क्षेत्र के बाहर स्थित होने पर गृहस्थों द्वारा पूछे जाने पर कि, 'आर्य ! यहाँ वर्षावास करेंगे?' साधु को 'अभी निश्चय नहीं किया है, ऐसा उत्तर देना चाहिए), यदि अभिवद्धित वर्ष है, तो आषाढ़ पूर्णिमा के पश्चात् बीस दिन तक और (यदि चन्द्रवर्ष है, तो) पचास दिन तक इसके पश्चात्'निश्चय कर लिया है, ग्रहण कर लिया है-कार्तिक मास पर्यन्त ।' (ऐसा उत्तर देना चाहिए) ॥६५॥
___ कदाचित् अकल्याणकारी कारणों (के उत्पन्न होने से साधु के विहार करने पर) अथवा अच्छी वर्षा प्रारम्भ न होने पर (साधु के वर्षावास की स्वीकृति से अच्छी वर्षा का अनुमान लगाकर तदनुसार कृषिकार्य में प्रवृत्त कृषकादि उसके प्रति कटु होंगे इस कारण गृहस्थ द्वारा वर्षावास के विषय में पूछने पर) 'अभिवद्धित संवत्सर में आषाढ़ पूर्णिमा से २० दिन और सामान्य संवत्सर में एक मास और बीस दिन अर्थात् ५० दिन तक ।' (ऐसा अनिश्चयात्मक उत्तर देना चाहिए) ॥६६॥
आषाढ़ पूर्णिमा को नियत स्थान पर प्रवेश कर (वहाँ रहते हुए वर्षावास के योग्य क्षेत्र न मिलने की स्थिति में योग्य क्षेत्र प्राप्त करने हेतु) पाँच-पाँच दिन करके पचास दिन तक (योग्य क्षेत्र प्राप्त होने की) प्रतीक्षा करना चाहिए। और आषाढ शुक्ला दशमी को जहाँ प्रवेश किया है (वहाँ भी यही नियम है) ॥६७||