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________________ परिशिष्ट - १ राया सप्पे कुंथू अगणि गिलाणे य थंडिलस्सऽसति । एएहिं कारणेहिं अपत्ते होइ निग्गमणं ॥ ७२ ॥ (क्षमा) वासं व न ओरमई पंथा वा दुग्गमा सचिक्खिल्ला । एएहिं कारणेहिं (उ) अइक्कंते होइ निग्गमणं ॥ ७३ ॥ ( उद्गाथा ) असिवे ओमोयरिए (उ) राया दुट्ठे भए व गेलणे । एएहिं कारणेहिं अइकंते होति निग्गमणं ॥ ७४ ॥ (क्षमा) उभओवि अद्धजोयण सअद्धकोसं च तं हवति खेत्तं । होइ सकोसं जोयण, मोत्तूण कारणज्जाए ॥७५॥ (गौरी) राजा सर्पः कुन्थुरग्निः ग्लाने च स्थण्डिलस्यासति । एभिः कारणैरप्राप्ते भवति निर्गमनम् ॥७२॥ वर्षा वा नोपरमति पन्थानो वा दुर्गमाः सकर्दमाः । एतैः कारणैरतिक्रान्ते भवति निर्गमनम् ॥७३॥ अशिवेऽवमौदर्ये राजद्विष्टे भये ग्लानत्वे वा । एतैः कारणैरतिक्रान्ते भवति निर्गमनम् ॥७४॥ उभयतोऽपि अर्द्धयोजनं सार्द्धक्रोशं च तद् भवति क्षेत्रम् । भवति सक्रोशं योजनं, मुक्त्वा कारणजातम् ॥७५॥ ४१ राजा, सर्प, कुन्थु (त्रीन्द्रिय जीव - विशेष), अग्नि से भय, रुग्ण होने और स्थण्डिल (उच्चारप्रस्रवण के योग्य भूमि) न रहने - इन कारणों से चातुर्मास पूर्ण न होने पर भी विहार करना चाहिए ॥७२॥ अथवा वर्षा न रुके, मार्ग दुर्गम और पङ्कयुक्त हो, इन कारणों से चातुर्मास व्यतीत होने के पश्चात् विहार करना चाहिए ||७३ || अमङ्गल होने पर, अवमौदर्य व्रत धारण करने पर, राजा के दुष्ट (होने) पर, भय ( उपस्थित होने) पर तथा रोग होने पर इन कारणों से चातुर्मास व्यतीत हो जाने के कुछ काल बाद भी विहार होता है ॥७४॥ चारों तरफ ढाई कोस (की निर्धारित सीमा तक क्षेत्र होता है, आगमन और प्रत्यागमन के संयोग से) पाँच कोस क्षेत्र होता है । कारण होने पर क्षेत्र की मर्यादा से मुक्त होकर भी गमन हो सकता है ॥७५॥
SR No.009260
Book TitleKalpniryukti
Original Sutra AuthorBhadrabahusuri
AuthorManikyashekharsuri, Vairagyarativijay
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2014
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size3 MB
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